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रंसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
(६४४२) लोहामृतम् (२)
अनुपान-बकरीका दूध । उसके अभावमें (च. द. । परि. शूला. २८)
गायका दूध । दूध दवासे ६४ गुना लेना
चाहिये। तनूनि लोहपत्राणि तिलोत्सेधसमानि च ।
इसे घी और शहदके साथ मिला कर खाना कशिकामूलकल्केन सम्लिप्य सर्षपेण वा ।।
चाहिये। विशोष्य सूर्यकिरणः पुनरेवावलेपयेत् ।।
इसके सेवनसे पक्तिशूल केवल १ मासमें ही त्रिफलाया जले ध्मातं वापयेच पुनः पुनः॥
नष्ट हो जाता है। ततः सञ्चूर्णितं कृत्वा कपटेन तु छानयेत् ।
इसके सेवन कालमें ककारादि वर्गके फल भक्षयेन्मधुसर्पिा यथाग्न्येतत्प्रयोजयेत् ॥
और शाक,* अम्ल पदार्थ तथा आनूपदेशीय माषकं त्रिगुणं वाथ चतुर्गुणमथापि वा।
| जीवोंके मांससे परहेज़ करना चाहिये । छागस्य पयसः कुर्यादनुपानमभावतः ॥ गवां घृतेन दुग्धेन चतुः षष्टिगुणेन च ।
लोहामृतम् (३) पक्तिशूलं निहन्त्येतन्मासेनैकेन निश्चितम् ॥ | (र. र. ; र. का. धे. । राजयक्ष्मा.) लोहामृतमिदं श्रेष्ठं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा।
प्र. सं. ५८३० “ यक्ष्मारि लौहम् " फकारपूर्वकं यच्च यच्चाम्लं परिकीर्तितम् ॥
| देखिये। सेव्यं तन्न भवेदन मांसं चानूपसम्भवम् ॥
(६४४३) लोहामृतरसः तिलके समान मोटे लोह पत्रोंको सफेद . (वृ. नि. र. । संग्रहण्य.) आककी जड़ या सरसेकेि कल्कसे लिस करके सङ्ग्राह्य मृतलोहस्य पलान्यष्टादशानि च । धूपमें सुखावें । सूख जाने पर पुनः लेप करके | त्रिकटु त्रिफला दार्वी वहिर्मुस्ता दुरालभा । सुखा लें और फिर उन्हें अग्निमें तपा कर त्रिफला- किराततिक्तकोनिम्बपटोलकटुकामृता । के काथमें बुझावें । इसी प्रकार बार बार लेप करके उस समय तक बुझावें जब तक कि लोहका मध्वाज्याभ्यां लिहेत्कर्षमीसि ग्रहणीं जयेत् । चूर्ण न हो जाय । तदनन्तर उसे लोह खरलमें | वातपित्तकर्फ रक्तं नाशयेद्रोगसश्चयं ॥ घोट कर कपड़ेसे छान लें।
| ख्यातो लोहामृतो नामदेहदाढर्थकरः परः ॥ (इस चूर्णको आककी जड़के काथमें घोट लोह भस्म ९० तोले; सेांठ, मिर्च, पीपल, कर शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटकी अग्नि हर्र, बहेड़ा, आमला, दारुहल्दी, चीता, नागरदे कर भस्म कर लेना विशेष उत्तम है।) *ककारादि वर्ग-कुष्माण्ड, कर्कटी, मात्रा-१ से ४ माशे तक
कलिंग, कारवेल्ल, कुसुम्भिका, कर्कोटी, कलम्बी, ( व्यवहारिक मात्रा-१ से २ रत्ती । ) | काकमाची ।
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