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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः २०९ - - - - (५५६०) महामृत्युञ्जयरसः (२) शुद्ध पारद, शुद्ध बछनाग ( मीठे विष ) का (र. चि. म. । स्त. ७; र. रा. सु. । ज्व) चूर्ण, शुद्ध सीसा और शुद्ध गन्धक १-१ भाग सूतकं च विषं नागं गन्धकं च चतुष्टयम् । लेकर प्रथम सीसेको पिघला कर पारदमें डालें और समं सर्व विघृष्टव्यं शिखिना तदिनद्वयम् ॥ । खूब धोटें । जब दोनों मिल जाएं तो गन्धक और तस्य कल्कस्य पादैकं मृन्मये दृढभाजने। विष डालकर, घोटकर कजली बनावें तथा उसे २ क्षिप्त्वा हेम्नोऽपि कर्तव्या पत्रस्य समपत्रिका॥ दिन चीतेके काथमें खरल करके उसके चार दातव्या तस्य कल्कस्य ह्युपरिष्टादृढीयसी। भाग करें। पुनः शरावकं दत्त्वा कुर्यात् सन्धिनिरोधनम् ॥ अब कपरमिट्टी की हुई एक मजबूत हाण्डीमें विशोष्य वालुकां दद्यादुपरिष्टात्समन्ततः। उपरोक्त कज्जलीका १ भाग रख कर उसके ऊपर याममेकमथो चुल्ल्यां पाचयेन्मन्दवह्निना ॥ १ भाग शुद्ध स्वर्णका वृक्षपत्रके समान बारीक अनेनैव विधानेन पत्रिका मारयेत्क्रमात् । पत्र रखकर जोरसे दबा दें और उसके ऊपर कपड़ अवशिष्टस्य कल्कस्य तस्याऽप्युपरि पत्रिकाम् ॥ मिट्टी किया हुवा एक मज़बूत ढकन ढक कर सन्धिको समावस्थं च सकलं हेमचूर्ण रसस्य च । गुड़ चूने आदिसे अच्छी तरह बन्द करके सुखा कर विषं भागैकमेकं च चतुर्भागं च मौक्तिकम् ॥ हाण्डीके शेष भागमें रेत भर दें तथा उसे चूल्हे गन्धकं भागमेकं स्यात्पश्चात्सर्वं तदौषधम् ।। पर चढ़ाकर १ पहरकी मन्दाग्नि दें। मर्दयेदेकतः कृत्वा चित्रकस्य रसेन च ॥ । तदनन्तर हाण्डीके स्वांग शीतल होने पर पुटित्वा किंचिदेवैतत् पिष्टरूपं तदुद्धरेत् ।। | उसमेंके स्वर्ण पत्रको निकाल लें और पुनः उपरोक्त क्षये कासेऽम्लपित्ते च श्वासे कण्डामयेषु च ॥ विधिसे १ भाग कज्जलीके ऊपर इस स्वर्ण पत्रको शाल्मलीद्रवसंमिश्रं पुष्टिहेतोः प्रयोजयेत् । । रख कर पूर्वोक्त प्रकारसे १ पहरकी अग्नि दें । इसी मरिचेन समं देयो कफरोगेषु पारदः॥ प्रकार ४ बार अग्नि दें। हर बार स्वर्ण पत्रके नीचे शूले च परिणामे च घृताक्तमधुमिश्रितः। कन्जलीका एक भाग रखना चाहिये । इस विधिसे गुडूचीजीरकैर्युक्तः स्वरभङ्गे प्रदापयेत् ॥ ४ बारमें स्वर्ण भस्म तैयार हो जायगी। ( यदि पित्ताधिकेषु रोगेषु शाल्मलीद्रवमिश्रितः ।। | कमी रहे तो अधिक बार इसी प्रकार करना अन्यान्सर्वानयं रोगान् रोगयोग्यानुपानतः ॥ चाहिये । ) । नाशयत्यचिरेणायं दुस्तरानतिवेगतः । ____ अब यह स्वर्ण भस्म (सम्पूर्ण), शुद्ध पारद १ तैलं राजीव बिल्वं च वर्जयेदम्लसेवनम् ॥ भाग, शुद्ध बछनाग १ भाग, मुक्ता भस्म ४ भाग, अयं मृत्युञ्जयो नाम रसो रोगारिरुत्तमः ।। और शुद्र गन्धक १ भाग लेकर सबको एकत्र वारणपतिमं कुर्याच्छरीरमजरामरम् ॥ घोट कर १ दिन चीतेके काथमें धोटें और उसे शक्यन्ते न गुणा वक्तुं रसस्यास्य नरैर्बुवम् ॥ | शराव सम्पुटमें बन्द करके लघु पुटमें पकावें । २७ For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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