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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
यह तेल समस्त प्रकारके व्रणोंको शुद्ध चीतामूल, सहजनेकी छाल, मकोय, कलियारीकी जड़, करता है।
नीमकी छाल, बकायनकी छाल, बांझ ककोड़ेकी (६८०१) विषगर्भतलम (१) (महा) जड़, दशमूलकी प्रत्येक ओषधि, शतावर, करेला, ( वृ. नि. र. । वातव्या. ; यो. र. । वातव्या. )
| सारिवा, गोरखमुण्डी, विदारीकन्द, सेहुंड (सेंड-थोहर),
| आककी जड़, मेढासिंगी, लाल और सफेद कनेर, कनकं तु च निर्गुण्डी तुम्बिनी च पुनर्नवा ।।
बच, काकजंघा, अपामार्ग (चिरचिटा ), बला वातारिश्चाश्वगन्धा च प्रपुनाट सचित्रकम् ॥
(खरटी ), अतिबला (कंधी), नागबला, कटेली, सौभाजनं काकमाची कलिकारी च निम्बकम् ।
महाबला, बासा, गिलोय और प्रसारणी ५-५ महानिम्बेश्वरी चैव दशमलं शतावरी ॥
तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर कारवेल्ली सारिवा च श्रावणी च विदारिका।
पानीमें पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें। वज्यकौं मेषशृङ्गी च करवीरद्वयं वचा ॥
कल्क-सांठ, मिर्च, पीपल, कुचला, रास्ना, काकजङ्घा त्वपामार्गबला चातिबलाद्वयम् ।।
कठ, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, मीठा विष व्याघ्री महाबला वासा सोमवल्ली प्रसारिणी ॥ पलोन्मितानि चैतानि द्रोणेम्भसि विनिःक्षिपेत् ।
(छनाग,) जवाखार, सज्जीखार, सेंधानमक, काला पचेत्पादावशेषेस्मिन्कल्कस्य कुडवं क्षिपेत् ॥
नमक (संचल), सामुद्र लवण, काच लबण, बिड
लवण, तूतिया, कायफल, पाठा, भरंगी, नौसादर, त्रिकटुं विषतिन्दुं च रास्ना कुष्ठं विषं धनम् ।
त्रायमाणा, धमासा, जीरा और इन्द्रायणकी जड़ देवदारुवेत्सनाभो द्वौ क्षारौ लवणानि च ॥
समान भाग मिश्रित २० तोले ले कर सबको तुत्यकं कट्फलं पाठा भाडौं च नवसागरम् ।
एकत्र पीस लें। प्रायन्ती धन्वयासं च जीरकं चन्द्रवारुणी ॥
२ सेर तेलमें उपरोक्त काथ और कल्क मि. तैलपस्थं समादाय पाचयेन्मृदुवह्निना ।।
लाकर मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी जल जाए विषगर्भमिदं नाम्ना सर्वान्वातान्व्यपोहति ॥
तो तेलको छान लें। वक्षोरुकटिजङ्घानां सन्धान श्रेष्ठमेव च ।
इसकी मालिशसे समस्त वातज रोग; वक्ष, गृध्रसीं च महावातान्सर्वाङ्गग्रहणं तथा ॥
ऊरु, जंघा, कटि और सन्धिगत वायु, गृध्रसी, दण्डापतानकं चैव कर्णनादं च शून्यताम् ।
सवींगग्रह, दण्डापतानक, कर्णनाद और शून्यता वनमध्ये यथा सिंहात्पलायन्ते यथा मृगाः ॥
आदि रोग नष्ट होते हैं। तथाश्वगजभग्नानां नराणां च चतुष्पदाम ।
(६८०२) विषगर्भतैलम् (२) नाशयेन्नात्र सन्देहो विषगर्भप्रलेपनात् ॥ ।
(यो चि. म. । अ. ६) क्वाथ-धतूरा, संभालु, कड़बी तूंबी, पुन- कनकं तु च निर्गुण्डी तुम्बिनी च पुनर्नवा । नवा (बिसखपरा ), अरण्डमूल, असगन्ध, पंवाड़, वातारिश्चाश्वगन्धा च पुन्नाटः सचित्रकः ।।
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