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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [रकारादि इसे लौंग, सफेद चन्दन, कस्तूरी और केस- पांशु लवण और पारद समान भाग ले कर रके चूर्णके साथ खानेसे उपद्रवयुक्त फिरंग रोग दोनोंको थोहर (सेंड) के दूधमें कई बार घोट कर (उपदंश) शीत्र ही नष्ट हो जाता तथा अग्नि, बल, लोहे के सम्पुट में रक्खें और उसे खिड़िया मिट्टीके वीर्य और काम शक्तिकी वृद्धि होती है। चूर्णसे ढक कर सम्पुटको बन्द करके उसके ऊपर (रसकर्पूर सदैव किसी योग्य वैद्य की देख- कपड़ मिट्टी कर दें । तदनन्तर एक हाण्डीमें आधी रेख में ही सेवन करना चाहिये । ) | दूर तक सेंधा नमकका चूर्ण भर कर उस पर वह __(६०५३) रसकर्पूरविधिः (४) सम्पुट रक्खें और फिर हाण्डीको गले तक सेंधा (रसे. सा. सं.) नमकके चूर्णसे भर दें । एवं उसे चूल्हे पर चढ़ा टङ्कणं मधु लाक्षा च ऊर्णागुञ्जायुतो रसः। कर नीचे एक दिन तीब्राग्नि जलावें । तत्पश्चात् मदितो भृङ्गनद्रावैर्दिनं सम्पुटमागतम् ॥ .. यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर उसमें से सम्पुटको ध्मातो भस्मत्वमाप्नोति शुद्धक:रसन्निभम् । निकालकर सावधानी पूर्वक खोल लें। इसमें ऊप. रके कटोरेमें अत्यन्त स्वच्छ सफेद रंगकी भस्म सुहागा, शहद, लाख, ऊन, चौंटली (गुञ्जा) मिलेगी। इसे 'रसकर्पूर' कहते हैं। और शुद्ध पारद समान भाग ले कर सबको. एकत्र मिला कर भंगरेके रसमें खरल करें और फिर उसे ___ मात्रा--६ रत्ती। सम्पुट में बन्द करके उस सम्पुटको कोयलोंकी इसे लोगके चूर्णके साथ प्रातःकाल खाना अग्नि पर रख कर धौंकनीसे धौंकते रहें । इसी चाहिये । तथा औषध खानेके पश्चात् शीतल प्रकार ( ३-४ पहर ) पकानेसे पारदकी भस्म हो | जल पीना चाहिये। जायगो जो शुद् कथूरके समान होगी। इससे दो पहर पश्चात् रेचन हो कर दोष (६०५३ अ.) रसक'रविधिः (५) | निकल जाते हैं। (सुधानिधिरसः) (व्यवहारिक मात्रा--आधीसे १ रत्ती तक ।) ( रसे. सा. सं. । पूर्व खण्ड.) रसकर्पूरसेवनविधिः पिष्टं पांशुपटु प्रगाढममलं वच्याम्बुना नैकशः ( न. मृ. । त. ८) मृतं धातुगतं खटीकवलितं तं सम्पुटे रोधयेत् ॥ केवलं रसकर्पूरमपातनकारितम् । अन्तःस्थं लवणस्य तस्य च तले प्रज्ज्वाल्य रक्तिकाप्रमाणेन पक्वगोधूमवेष्टितम् ।। वह्नि दृढं । | अथवा रक्तिकामानं पक्वचूर्णेन वेष्टितम् । घनं ग्राह्यमथेन्दुकुन्दधवलं भस्मोपरिस्थं शनैः ॥ विधिना भक्षयेद्रोगी लवङ्गचूर्णसंयुतम् ॥ तल्लद्वितयं लवङ्गसहितं प्रातः प्रयुक्तं भजे- अलवणं भक्षयेच्चान्नं अथवा घृतसंयुतम् । दूर्ध्वं रेचयति द्वियाममसकृत्पेयं जलं शीतलम्।। स्नातको ब्रह्मचारी च तिष्ठेद्विधियुतो बुधः॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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