SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 585
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [वकारादि वृहद्गुडूच्यादिकाथः (६५५९) वृहद्रास्नादिकाथ: (भै. र. । ज्वरा.) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. २) प्रयोग संख्या ११८४ देखिये। रास्ना गुडूची घनपर्पटक पटोली (६५५७) वृहडाव्यादिकाथ: भूनिम्बवत्सकसठीयुतनागराणाम् । तिक्तासुराहगजमागधिका यवास(भै. र. । मूत्रकृच्छ्रा .) वासाबला गजबला कथितः समांशः ॥ धात्री द्राक्षा च यष्टयाई विदारी सत्रिकण्टका। काथो निहन्ति मरुतप्रभवामयानां दर्भेक्षु मूलमभया कायित्वा जलं पिबेत् ॥ सश्वासकासजठरातिविचिकानाम् । ससितं मूत्रकृच्छन्नं रुजादाहहरं परम् ॥ श्रेष्ठो नृणां भवति दारुणसन्निपाते आमला, मुनक्का, मुलैठी, बिदारीकन्द, गोखरु, रोगेऽथवा कफसमीरणके प्रदेयः ॥ दाभ, ईखकी जड़ और हर्र समान भाग ले कर रास्ना, गिलोय, नागरमोथा, पित्त पापड़ा, क्वाथ बनावें। पटोल, चिरायता, इन्द्रजौ, कचूर, सोंठ, कुटकी, इसमें मिश्री मिला कर पीनेसे मूत्रकृच्छू दाह देवदारु, गजपीपल, जवासा, बासा, खरैटी और और पीड़ा नष्ट होती है। नागबला समान भाग ले कर काथ बनावें । - (६५५८) वृहद्भार्यादिकाथः यह क्वाथ वातव्याधि, श्वास, खांसी, उदर( भै. र. । ज्वरा.) शूल, विसूचिका, भयंकर सन्निपात और कफभार्गी पथ्या कटुः कुष्ठं पर्पटं मुस्तकं कणा।। वातज रोगांको नष्ट करता है। अमृता दशमूलश्च नागरं काथयेद्भिषक् ॥ वृहद्रास्नादिकाथः इन्ति धातुगतं सर्व बहिःस्थं शीतसंयुतम् । (वै. र. । वाता.) सतताय ज्वरं घोरं मन्दाग्नित्वमरोचकम् ॥ प्लीहानं यकृतं गुल्मं श्वयथुश्च विनाशयेत् । प्र. सं. ५८८४ रास्नादि क्वाथः (१८) एष भार्यादिको नाम सर्वज्वरहरः परः॥ | देखिये । . भरंगी, हर्र, कुटकी, कूठ, पित्तपापड़ा, नागर- (६५६०) वृहदरुणादिकाथः मोथा, पीपल, गिलोय, दशमूल और सोंठ समान ( भै. र. । अश्मर्य. ) भाग ले कर काथ बनावें । वारुणं वल्कलं शुण्ठी बीजं गोक्षुरसम्भवम् । यह क्वाथ समस्त धातुगत और बहिःस्थ सालमूली कुलस्थञ्च कुशादि पञ्चमूलकम् ॥ सन्ततादि शीत ज्वर, अग्निमांद्य, अरुचि, प्लीहा, शर्करा क्षारसंयुक्तं क्वाथयित्वा जले पिबेत् । यकृत, गुल्म और शोथको नष्ट करता है। | अश्मरीमूत्रकृच्छन्नं वस्तिमेहनशूलनुत् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy