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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम्] चतुर्थों भागः २४७ इसके सेवनसे बहुरूपयक्ष्मा, ज्वर, गुल्म, शुद्ध पारद और स्वर्ण भस्म १-१ भाग ले विद्रधि, अग्निमांद्य, स्वर-भेद, खांसी, अरुचि, कर दोनोंको एकत्र करके एक दिन जम्बीरी नींबूके वमन, मूर्छा, भ्रम, अष्ट महारोग, ग्रहपीड़ा, रसमें घोटें और फिर उसमें ४ भाग ताम्र भस्म, पाण्डु, कामला, पित्तज रोग और अन्य अनेक रोग ६ भाग शुद्ध गन्धक और ३ भाग सुहागा मिलानष्ट होते हैं। कर सबको ४ पहर जम्बीरी नीबूके रसमें घोट कर इसके सेवन कालमें क्षय रोगोचित पथ्यादि गोला बनावें; और उसे (सुखाकर) चार तह किये पालन करना; और रसविरुद्ध आहार विहारका हुवे कपड़े में लपेट कर दोलायन्त्र-विधिसे १ पहर त्याग करके बल-वीर्य-वर्द्धक आहार सेवन | कांजीमें पकावें । तत्पश्चात् इस गोलेको सुखाकर करना चाहिये। एक कपड़ेमें लपेटें और उस पर मिट्टीका एक अंगुल मोटा लेप करदें । अब इसे सुखा कर, एक __ (५६३८) मृगाङ्करसः (६) (महा) हाण्डीमें नीचे दो अंगुल सेंधा नमकका चूर्ण बिछा(र. र. ; र. का. धे. । राजयक्ष्मा; रसे. चि. म. Ix कर, उसपर रखें और हाण्डीको मुंह तक सेंधा अ. ९; यो. चि. म. । अ. ७) नमकके चूर्णसे भर दें । इसके पश्चात् हाण्डीके शुद्धं सूतं स्वर्णभस्मजम्बीरैर्मईयेदिनम् । मुखको बन्द करके, उसे चूल्हे पर चढ़ाकर १ दिन क्रमशः मृदु मध्यम तीब्राग्नि दें। तदनन्तर जब तयोर्द्विगुणितं तानं त्रिभिस्तुल्यन्तु गन्धकम् । टणं गन्धकार्द्धश्च सर्व जम्बीरजैद्रवैः ।। हाण्डी स्वांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे रसको निकाल कर खरल करें। मर्ये यामैश्चतुर्भिस्तद्वस्त्रे बद्धवा विपाचयेत् ॥ दोलायन्त्रे चारनाले यामादुद्धृत्य शोषयेत् । इसे १० काली मिर्ची के चूर्ण और घी तथा ततो मृन्मयभाण्डान्तर्लवणश्चाङ्गुलद्वयम् ॥ मिश्रीमें मिलाकर अथवा पीपलके चूर्ण और शहदके ऊवाधः पृष्ठतः कृत्वा गोलकं वस्त्रवेष्टितम् । साथ सेवन करनेसे राजयक्ष्मा रोग नष्ट हो लवणैः पूरयेद्भाण्डमन्धयित्वा दिनं पचेत् ॥ जाता है । चुल्ल्यां क्रमानिसिद्धः स्याद्रसो महामृगाङ्ककः । ___ (५६३९) मृगाङ्करसः (७) (स्वल्प) अनेनैव प्रकारेण महाङ्कान्पाचयेद्रसान् ॥ राजरोगनिवृत्यर्थ देयं सिता घृतन्तु तैः ।। (र. र. ; र. चं. ; र. का. धे. ; र. रा. सु.। क्षय.) दशभिर्मरिचैः सार्दै पिप्पलीमधुनापि वा ॥ रसभस्महेमभस्म तुल्यं गुञ्जाद्वयं पृथक । पूर्ववदनुपानेन मृगाङ्कोऽयं क्षयापहः॥ x रस कामधेनु, रसे. चि. म. में(१) ताम्रके स्थानमें मुक्ता है। समान भाग पारद भस्म और स्वर्ण-भस्म (२) सुहागा स्वर्णसे आधा है। | एकत्र मिलाकर पीपलके चूर्ण और शहदके साथ For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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