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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४८ www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः इन्हें सेवन करनेसे यकृत, प्लीहा, उदररोग, गुल्म, अर्श और ग्रहणी विकारका नाश तथा afrost वृद्धि होती है । ( मात्रा - ३ - ४ माशे । ) (५१७६) मानकादिगुटिका ( वृहत् ) (भै. र. । प्लीहा ) मानमार्ग स्थिरावद्विस्नुहीनागरसैन्धवम् । तालरण्डं क्रिमिन्नञ्च हखुषं चविका वचा ॥ विडसौवर्चलक्षारपिप्पलीशरपुङ्खकम् । जीरकं पारिभद्रञ्च प्रत्येकं कर्षकद्वयम् ॥ सार्द्धाढके गवां मूत्रे पचेत्सर्वं सुचूर्णितम् । सान्द्रीभूते क्षिपेदेषां चूर्णकं कर्षसम्मितम् ॥ अजाजी त्र्यूषणं हिङ्गु यमानी पुष्करं शटी । त्रिवृन्ती विशाला च दत्त्वा त्रिपलमाक्षिकम् ॥ खादेदग्निबलापेक्षी बुद्ध्वा चानुपिवेन्नरः । प्लीहोदरानाहगुल्मं पाण्डुं सकामलम् ॥ कुक्षिशूलश्च हृच्छूलं पार्श्वशुलमरोचकम् । शोथञ्च श्लीपदं हन्ति जीर्णञ्च विषमज्वरम् || मानकन्द, लाल अपामार्ग ( चिरचिटा ), शालपर्णी, चीता, सेहुंड ( सेंड - थूहर ) की जड़, सोंठ, सेंधा नमक, तालजटा, बायविडंग, हाऊबेर, चव, बच, बिड नमक, काला नमक ( सञ्चल ), जवाखार, पीपल, सरफेांका, जीरा और पारिभद्र ( फरहद ) की जड़की छाल २-२ कर्ष ( २॥ - ३॥ तोले) ले कर सब का महीन चूर्ण बनावें और उसे १२ सेर गोमूत्र में पकावें । जब वह गुड़ के समान गाढ़ा हो जाय तो उसमें जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, हींग, अजवायन, पोख Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ मकारादि रमूल, कचूर, निसोत, दन्तीमूल और इन्द्रायणकी जड़का ११ - ११ तोला चूर्ण मिलाकर अग्नि से नीचे उतार लें और ठण्डा होने पर उसमें ३ पल ( १५ तोले ) शहद मिला कर सुरक्षित रक्खें । इसे यथोचित मात्रानुसार उचित अनुपान के साथ सेवन करनेसे यकृत, प्लीहा, उदररोग, अफारा, गुल्म, पाण्डु, कामला, कुक्षिशूल, हृदयका शूल, पसलीकी पीड़ा, अरुचि, शोथ, श्लीपद और पुराने विषम ज्वरका नाश हो जाता है । ( मात्रा - ३ - ४ माशे । ) (५१७७) मार्कण्डीपत्रगुटिका (ग. नि. । राजय. ६ ) मार्कण्डीपत्रचूर्णस्य गुटिकां मधुना कृताम् । Standard कासविष्टम्भशान्तये || A मार्कण्डी (सनाय) के पत्तों के चूर्ण को शहद में मिला कर गोलियां बना लें । इन्हें मुखमें रखनेसे खांसी नष्ट होती है । (५१७८) माषादिमोदकः ( शा. ध. । खं. २ अ. ७ ) निस्तुषं माषचूर्ण स्यात्तथा गोधूमसम्भवम् । निस्तुषं यवचूर्णे च शालितन्दुलजं तथा ॥ सूक्ष्मं च पिप्पलीचूर्ग पलिकान्युपकल्पयेत् । एतदेकीकृतं सर्वं भर्जयेद्गोघृतेन च ॥ अर्धमात्रेण सर्वेभ्यस्ततः खण्डं समं क्षिपेत् । जलं च द्विगुणं दत्त्वा पाचयेच्च शनैः शनैः ॥ ततः पक्वं समुद्धृत्य वृत्तान् कुर्वीत मोदकान् । भुक्त्वा सायं पलैकं च पिवेत्क्षीरं चतुर्गुण || For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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