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गुटिकाप्रकरणम् ]
. चतुर्थो भागः
महाशङ्खवटा
। इनमेंसे प्रति दिन १-१ मोदक सेवन कर(भै. र. । अग्निमान्द्या.; र. रा. सु. । अजीर्णा.) नेसे खांसी, क्षय, कुष्ठ, भगन्दर, प्लीहा, जलोदर रस प्रकरणमें देखिये।
और अर्श का नाश होता तथा वृद्ध पुरुष तरुणके
समान हो जाता है। महोदधिवटी
इस पर यथेष्ट आहार विहार करना चाहिये। रस प्रकरणमें देखिये।
किसी विशेष परहेजकी आवश्यकता नहीं है। माक्षिकादिवटी
(व्यवहारिक मात्रा-पावसे आधा मोदक तक । ) रस प्रकरणमें देखिये।
(५१७५) मानकादिगुटिका माणादिगुटिका
__(माणादि गुटिका) मानकादि गुटिका देखिये।
। (भै. र. । प्लीहयकृद्रो.; धन्व. । उदर.; च. द.। (५१७४) माणिभद्रमोदकः
- प्लीहा. ३८; व. से। उदर.) (च. द. । अर्श.; ग. नि. । गुटिका. ४; व. से. । विरेचना.; वा. भ. । अ. १९ कुष्ठा.;
मानमार्गामृता वासा स्थिरा सैन्धवचित्रकम् । भै. र. । अर्श.) .
नागरं तालपुष्पश्च प्रत्येकञ्च त्रिकार्षिकम् ॥ विडङ्गसारामलकाभयानां
| बिडसौवर्चलक्षारपिप्पल्यश्चापि कार्षिकाः। पलं पलं स्यात्रिता त्रयं च ।
एतच्चूर्णीकृतं सर्वं गोमूत्रस्याढके पचेत् ॥ गुडस्य षड् द्वादशभागयुक्ता
सान्द्रीभूते गुडी कुर्याहत्त्वा त्रिपलमाक्षिकम् । __ मासेन त्रिंशद्गुटिका विधेयाः ॥
यकृत्प्लीहोदरहरो गुल्माग्रिहणीहरः॥ निवारणे यक्षवरेण सृष्टः
योगः परिकरो नाम्ना अग्निसन्दीपनः परः ॥ स माणिभद्रः किल शाक्यभिक्षवे ॥ | मानकन्द, लाल अपामार्ग (चिरचिटा), गिलोय, अयं हि कासक्षयकुष्ठनाशनो
बासा (अडूसा) की जड़, शालपर्णी, सेंधा नमक, भगन्दरप्लीहजलोदरार्शसाम् ।।
चीतामूल, सोंठ और ताड़के फूल ३-३ कर्ष तथा यथेष्टचेष्टान्नविहारसेवी
विडनमक, सञ्चल नमक, जवाखार और पोपल अनेन वृद्धस्तरुणो भवेच्च ॥
१-१ कर्ष (१।-१। तोला) लेकर सबका महीन बायबिडंगकी गिरी, आमला और हर्र १-१ चूर्ण बनावें और उसे ८ सेर गोमूत्र में मिलाकर पल ( ५-५ तोले ) तथा निसोत ३ पल लेकर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो अग्निसे नीचे सबका महीन चूर्ण करके उसे ६ पल गुड़में मिला- उतार लें और ठण्डा होने पर उसमें १५ तोले कर सबके ३० मोदक बना लें।
शहद मिलाकर गोलियां बना लें।
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