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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६५६६) व्याध्यादिकषायः (४) । इसमें जवाखार मिला कर पीनेसे हृदय,
( वा. भ. । चि. अ. १) कुक्षि और पसलीका कफज शूल नष्ट होता है। सनिपातज्वरे व्याघ्रीदेवदारुनिशाधनम् । (६५६९) व्याध्यादिकषायः (७) पटोलपत्रनिम्बत्वत्रिफलाकटुकायुतम् ॥
(वृ. नि. र. । विषमज्वरा.) ___कटेली, देवदारु, हल्दी, नागरमोथा, पटोल
व्याघ्री विश्ववितुन्नपुष्करपत्र, नीमकी छाल, त्रिफला और कुटकी समान
रजोभूनिम्बवासामृताभार्गीभाग ले कर क्वाथ बनावें ।
निम्बपटोलपनकपनयह क्वाथ सन्निपात ज्वरको नष्ट करता है।
स्तिक्ताकलिङ्गैः कृतः। (६५६७) व्याध्यादिकषायः (५) क्वाथो हन्ति सचन्दनः (व. से. । श्वासा.)
कफमरुत्पित्तं सदाहं तृषां
कासं पञ्चविध ज्वरं कृमिन्याघ्रीदुरालभाशृङ्गीविल्वमध्यत्रिकण्टकैः। सामृतानिभृतैरेतैयूषः स्याच्वासनुत्परः॥
रुज पाण्डं वर्मि कामलाम् ॥ ____ कटेली, धमासा, काकड़ासिंगी, बेलगिरी,
कटेली, सोंठ, धनिया, पोखरमूल, चिरायत , गोखरु और गिलोय समान भाग ले कर क्वाथ
बासा, गिलोय, भरंगी, नीमकी छाल, पटोल, पनाक, बनावें ।
नागरमोथा, कुटकी, इन्द्रजौ और लाल चन्दन
समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । यह काथ पीनेसे श्वास नष्ट होता है ।
___ यह क्वाथ कफ, वायु, पित्त, दाह, तृषा, ५ (६५६८) व्याध्यादिकषायः (६)
प्रकारकी खांसी, ज्वर, कृमि, पाण्डु, वमन और (व. से.। शुला.)
कामलाको नष्ट करता है। व्याघ्री ससिंहीफलबिल्वमूलं शिलोद्भवं गोक्षुरकश्च तुल्यम् ।
(६५७०) व्याध्यादिकषाय: (८) एरण्डमूलं द्विगुणं च पक्त्वा
(व. से. । ज्वरा. ; वृ. नि. र.) पिबेद्यवक्षारयुतं कषायम् ॥ व्याघ्रीदुरालभाभार्गी शठी शृङ्गी सपौष्करम् । हृत्कुक्षिपाश्र्वानुगतं निहन्या
पक्वाम्बुश्लेष्महदेयमभिन्यासपशान्तये ॥ च्छूलं नराणां कफ प्रवृद्धम् ॥ | कटेली, धमासा, भरंगी, कचूर, काकड़ासिंगी ___कटेली, कटेलीके फल, बेलकी जड़की छाल, और पोखरमूल समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । छरीला और गोखरु १-१ भाग तथा अरण्डमूल यह काथ कफ और अभिन्यास ज्वरको नष्ट २ भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
करता है।
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