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कषायप्रकरणम् ।
चतुर्थों भागः
De6.
अथ वकारादिकषायप्रकरणम् (६४६४) वंशत्वगादिकाथः । बच, अतीस, कूठ, चीता, देवदारु, पाठा, ( यो. र.; वृ. मा. ; वृ. नि. र. ; वं. से.।
| चव, नागरमोथा, चोक (सत्यानाशीको जड़ ),
कटेली, कुड़ेकी छाल, करञ्ज छाल, मूर्वा, कुटकी, आगन्तुव्रणा.)
अरनी, छोटा अमलतास, पीलु, हिज्जलवृक्ष, असना, क्वाथो वंशत्वगेरण्डश्वदंष्टाश्मभिदा कृतः। सतोना, हर', बहेड़ा, आमला और काली मिर्च हिसैन्धवसंयुक्तः कोष्ठस्थं स्रावयेदसृक् ॥ समान भाग लेकर काथ बनावें । ____बांसकी छाल, अरण्डमूल, गोखरु और पाषाण- __ इसमें शहद मिला कर सेवन करनेसे ऊरुभेदके काथमें हींग और सेंधा नमक मिला कर स्तम्भ नष्ट होता है। सेवन करनेसे कोष्ठस्थित रक्त निकल जाता है। ऊरुस्तम्भमें इन्हीं ओषधियोंका चूर्ण बनाकर
| शहदके साथ सेवन करना तथा इन्हीके कषायसे (६४६५) वचादिकषायः (१)
चायल बना कर खाना चाहिये। (ग. नि. । ऊरुस्त. २१ ; वृ. नि. र. ।
(६४६६) वचादिकषायः (२) __ ऊरुस्तंभा.)
(वा. भ. । चि. अ. १) वचा सातिविषा कुष्ठ चित्रको देवदारु च । कफवाते वचा तिक्ता पाठारग्वधवत्सकाः । पाठा तेजोवती मुस्ता स्वर्णक्षोरी निदग्धिका ॥ पिप्पलीचूर्णयुक्तो वा क्याथश्छिन्नोद्भवोद्भवः ।। वत्सको नक्तमालश्च मूर्वा च कटुरोहिणी । कफ तिज ज्वरमें बच, कुटकी, पाठा, तर्कारी प्रग्रहश्चैव पीलूनि निचुलानि च ॥ अमलतास और कुड़ेकी छालके काथमें अथवा असनः सप्तपर्णश्च त्रिफला मरिचानि च। गिलायके काथमें पीपलका चूर्ण मिला कर पीना एतानि समभागानि कषायमुपसाधयेत् ॥ | चाहिये। मधुयुक्तं कषायं तं प्रयोगेण पिबेन्नरः।। (६४६७) वचादिकषायः (३) ऊरुस्तम्भं नुदत्येष वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥
(ग. नि. । ज्वरा. १) एतान्येव तु चूर्णानि माक्षिकेण तु कल्पयेत् ।। वचागुडूची सुरदारु शुण्ठी अनेनैव कषायेण भोजयेत्सिद्धमोदनम् ॥ किरातकं मुस्तकमाटरूषः।
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