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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः ४९९ छान लें और फिर उसके ठण्डा होने पर उसमें चूर्णीकृत्य ततः क्षौद्रं चतुः पष्टिपलं क्षिपेत् ॥ इतना शहद डालें कि वह मीठा हो जाए । तत्प- दद्याद्गुडतुलां तत्र जलद्रोणद्वयं तथा । श्चात् उसमें उचित मात्रामें शुद्ध राब और पिप्प- घृतभाण्डे चिनिक्षिप्य निदध्यान्मासमात्रकम् ।। ल्यादिगगका चूर्ण एवं खैरके अंगारों में अनेक लोहासवममुं मर्त्यः पिवेदग्निकरं परम् । बार तपाये हुए शुद्र लोहके बारीक पत्र मिलाकर पाण्डुश्वयथुगुल्मानि जठराण्यशंसां रुजम् ॥ सबको शुद्र और घृतभावित मृत्पात्र में भरकर कुष्ठं प्लीहामयं कण्डू कासं श्वासं भगन्दरम् । उसका मुख बन्द करदें और उसे जौके ढेरमें दबा अरोचकं च ग्रहणी हृद्रोग घ विनाशयेत् ।। दें । इस पात्रमें औषध भरनेसे पूर्व शहदमें मिले लोहचूर्ग, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, हुए पोपलके चूर्ण का लेप कर देना चाहिए। आमला, अजवायन, बायबिडंग, नागरमोथा और २-३ मास या जब तक लोह न गल जाए । चीतामल २०-२० तोले. धायके फल ११ सेर. तब तक मटकेको अनाज के ढेरमें ही रहने देना | शहद २ सेर, गुड़ ६। सेर और शुद्ध जल ६४ चाहिये और फिर उसे निकालकर छानकर बोत- सेर लेकर कूटने योग्य चीजों का कूटकर सबको लोंमें भरलें । घृतसे चिकने किये हुवे पात्रमें भरकर उसका मुख इसे प्रातःकाल यथोचित मात्रानुसार सेवन | बन्द करके रख दें, और १ मास पश्चात् निकाल करने और पथ्य पालन करनेसे स्थूलता नष्ट | कर छान लें। और अग्नि दीप्त होती है। यह आसव अग्निवर्धक है एवं पाण्डु, शोथ, इसके अतिरिक्त यह अरिष्ट शोथ, हृदोग, | गुल्म, उदररोग, अर्श, कुछ, प्लीहा, कण्डू, खांसी, गुल्म, कुष्ठ, प्रमेह, पाण्डु, अभिष्यन्द और विषम- | श्वास, भगन्दर, अरुचि, ग्रहणी और हृद्रोगको ज्वरको भी नष्ट करता है। नष्ट करता है। (राब १ सेर ४५ तोले; पिप्पल्यादिगणका (६३०१) लोहासवः (२) चूर्ण तथा लोह समान भाग मिश्रित ६४ तोले ।) ( गदनिग्रह । आसवा. ६) ___ (६३००) लोहासवः (१) फलत्रिकं निम्बपटोलमुस्ता(शा. सं. । खं. २ अ. १०; र. का. धे. । पाण्डु., पाठामृताचन्दनचित्रकं च । ___गुल्मा.; यो. चि. म. । अ. ७) बेल्लं समगा च मधूकसारलोहचूर्ग त्रिकटुकं त्रिफलां च यवानिकाम् । कचूरवासाविताहरिद्राः॥ विडङ्ग मुस्तकं चित्रं चतुः सङ्ख्यापलं पृथक् ॥ दुरालभापर्पटकण्टकारीधात कीकुसुमानां तु प्रक्षिपेत्पलविंशतिः। । शकासनं यासकचर्मरङ्गे । For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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