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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः इसे शहद या धीमें मिलाकर चाटनेसे वमन, आककी जड़का चूर्ण अथवा सहदेवी या कफ, मुंहसे लार बहना, रक्तपित्त और दारुण गोकर्णीकी जड़का चूर्ण दूधके साथ सेवन करनेसे श्वास तथा हिचकीका नाश होता है। वातज शूल नष्ट होता है।
( थोड़ा थोड़ा करके दिन भरमें १ तोले (अर्कमल चूर्णकी मात्रा-आधामाशा ।) तक चटा सकते हैं)
(५१०८) मरिचादिचूनम (१) (५१०६) मधूकादिचूर्णम् (२)
(भै. र. । अशो.) (वा. भ. । चि. अ. ३ कास; ग. नि.। मरिचं पिप्पली कुष्ठं सैन्धवं जीरनागरम् । __ कासा. १०)
वचाहिङ्गुविडङ्गानि पथ्या वन्यजमोदकम् ॥ कासी पर्वास्थिशूली च लिह्यात्सघृतमाक्षिकान्। एतेषां कारयेच्चूर्ण चूर्णस्य द्विगुणं गुडम् । मधुकमधुकद्राक्षात्ववक्षीरी पिप्पलीबलान् ॥ खादेन्माषद्वयश्चापि पिबेदुष्णजलं ततः ॥ ___महुवा, मुलैठी, मुनक्का, बंसलोचन, पीपल सर्वाण्यांसि नश्यन्ति वातजानि विशेषतः ॥ और बला (बीजबन्द) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। । काली मिर्च, पीपल, कूट, सेंधानमक, जीरा,
इसे घी और शहदमें मिलाकर सेवन कर- साठ, बच, हींग, बायबिडंग, हरं, चीता और नेसे खांसी तथा जोड़ी और हड्डियोंकी पीडाका अजमोद १--१ भाग तथा गुड़ सबसे २ गुना नाश होता है।
लेकर चूर्ण बनावें। ( मात्रा २-३ माशे।)
| इसे २ माशेकी मात्रानुसार उष्ण जलके साथ मध्यमगङ्गाधरचूर्णम् सेवन करनेसे समस्त प्रकारकी बवासीर और विशे. प्र. सं. १२३३ "गङ्गाधरचूर्णम् (मध्यम)" षतः वातज बवासीर नष्ट होती है। देखिये।
(५१०९) मरिचादिचूर्णम् (२) मध्यमनायिकाचूर्णम्
( हा. स. । सा. ३ अ. १२) "लाईचूर्णम् (मध्यम) ” देखिये। कर्षमेकं मरीचस्य कवि पिप्पलो तथा । ___ मध्यमलाईचूर्णम्
| दाडिमस्य पलं योज्यं निर्गुण्डोनां पलद्वयम् ॥ " लाई चूर्णम् (मध्यम) ” देखिये । क्षारं तथाकर्षं तु संयोज्य या शूजम । (५१०७) मन्दारमूलिकाद्यं चूर्णम् चूर्ण चोष्णजलेनैव योजयेन्मतिमान् भिषक् ।। (वृ. नि. र. । शूल.)
काली मिर्च १। तोला, पीपल ७॥ माशे, मन्दारमूलिकाचूर्ण भुक्तं दुग्धेन मिश्रितम् । | अनारदाना ५ तोले, संभालुके पत्ते (या मूल) १० वातशूलहरं देवीमूलं वा कर्णगोद्भवम् ॥ तोले और जवाखार ७॥ माशे लेकर चूर्ण बनावें।
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