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७२६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि मापैकं चाकद्रावैर्लहयेद्वडवानलम् । | पादांशममृतं दत्वा चित्रद्रावैः क्षणं पचेत् । पिप्पलीमूलजं क्याथं सपिप्पल्यनुपाययेत् ।। मात्रया योजयेच्चानु दशमूलशृतं पयः ॥ धनुर्वातं दण्डवातं शृङ्खलाकम्पवातनुत् ॥ वातश्लेष्मप्रधाने च दद्यात्यूषणचित्रकम् ।
- रस सिन्दूर, स्वर्ण भस्म, हीरा भस्म, ताम्र | स्वेदं च कटुतुम्बिन्या प्रयुञ्जीतातियत्नतः॥ भस्म, कान्त लोह भस्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म, शुद्ध ताम्र भस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध गन्धक, हरताल, काला सुरमा, शुद्ध तूतिया, समन्दर फेन, | समुद्रफेन, अग्नि गर्भाशय ( अग्निजार-अम्बर ), सेंधा नमक, काला नमक ( संचल ), बिड लवण, कान्त लोह भस्म, पांचों नमक ( सेंधा, संचल, सामुद्र लवण, और काच लवण; इनको चूर्ण १-१ | बिड नमक, समुद्र लवण, काच लवण ), स्वर्ण भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर १ दिन सेहुंड भस्म, बच, काला सुरमा और नीला थोथा १-१ (थूहर) के दूधमें घोट कर गोला बनावें और उसे | भाग तथा रससिन्दूर १२ भाग ले कर सबको एकत्र शराव-सम्पुटमें बन्द करके भूधरपुटमें पकावें ।। खरल करें और थूहर ( सेहुण्ड ) के दूधमें घोटकर मात्रा-१ माशा
यथा विधि शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें इसे अदरकके रसमें मिला कर चाटनेके
पकावें । तदनन्तर स्वांगशीतल होने पर निकाल
| कर उसे अदरकके रसकी १० भावना दें और फिर पश्चात् पीपलका चूर्ण मिला हुवा पीपलामूलका काथ पीना चाहिये।
२ दिन चीतेके काथमें घोट कर उसमें उसका
चतुथाश शुद्ध बछनागका चूर्ण मिला कर ज़रा देर इसके सेवनसे धनुर्वात दण्डापतानक और
चीतेके काथमें पकावें और फिर सुखा कर चूर्ण कम्पवायुका नाश होता है।
करके सुरक्षित रक्खें । व्यवहारिक मात्रा-४ रत्ती।।
__इसे यथोचित मात्रानुसार दशमूल-सिद्ध (६९५२) वडवानलरसः (७) दुग्धके साथ सेवन करनेसे समस्त वातज रोग नष्ट (र. र. स. । उ. अ. १६, २१ ; र. चं.।।
होते हैं। अजीर्णा.)
___ इसे वातकफ प्रधान रोगोंमें त्रिकुटे और
चीते के चूर्णके साथ देना चाहिये तथा कड़वी तूंबीके शुल्ब तालकगन्धकौ जलनिधेः फेनाग्निगर्भाशयैः कान्तायोलवणानि हेमवचयोर्नीलाअनं तुत्थकम्
- योगसे स्वेद देना चाहिये । भागो द्वादशको रसस्य तदिदं वज्राम्बुघृष्टं शनैः
(६९५३) वडवानलरसः (८) सिद्धोऽयं वडवानलो गजपुटे रोगानशेषाञ्जयेत॥ (रसे. सा. सं. । अजीर्णा. ; भै. र. । अग्निमांद्या.)
आईकस्य द्रवैश्वासु दशवाराणि भावयेत् । शुद्धसूतस्य कर्फे गन्धकं तत्समं मतम् । दिनद्वयं चित्रकस्य द्रावेणैव तु भावयेत् ॥ । पिप्पली पञ्चलवणं मरिचञ्च फलत्रएम् ।।
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