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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः ७२७ - क्षारत्रयं समं सर्व चूर्ण कृत्वा प्रयत्नतः । अनुपानहोंग, सेंधा, संचल, अनारदाना, निर्गुण्डयाश्च द्रवेनैव भावयेदिनमेकतः॥ और बेलगिरीका चूर्ण समान भाग ले कर सबको वडवानलनामायं मन्दाग्निश्च विनाशयेत् ॥ भंगरेके रसमें घोटें। शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, पीपल, पांचों नमक उपरोक्त रस पानके साथ खा कर ऊपरसे (सेंधा, संचल, काच लवण, विड लवण, सामुद्र। यह चूर्ण सुराके साथ पीना चाहिये । लवण ), काली मिर्च, हर्र, बहेडा, आमला, सज्जी- इसके सेवनसे समस्त प्रकारके शूलों और खार, जवाखार, और सुहागा समान भाग ले कर गुल्मका नाश होता है ।। प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें और फिर (६९५५) वडवानलरसः (१०) उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको संभालुके वडवामुखो रसः रसमें घोट कर सुखा कर सुरक्षित रखें। (यो. र. । गुल्म. ; रसे. सा. सं. । ग्रह.; भै. इसके सेवनसे अग्निमांद्यका नाश होता है। र. । ग्रहण्य. ; गुल्मा.) ( मात्रा-१-१॥ माशा ।) शुद्धं मूतं समं गन्धं मृतताम्राभ्रटङ्कणम् । (६९५४) वडवानलरसः (९) सामुद्रश्च यवक्षारं स्वर्जिसैन्धवनागरम् ।। (रसे. सा. सं. ; र. चं. ; धन्व. ; र. का. अपामार्गस्य च क्षारं पलाशवरुणस्य च । प्रत्येकं सूततुल्यं स्यादम्लयोगेन मर्दयेत् ॥ धे. । गुल्मा.) हस्तिशुण्डीद्रश्वैचाग्नौ मर्दयित्वा पुटेल्लघु । पारदं गन्धकं ताप्यं यवक्षारामभ्रकम् ।। माषमात्र प्रदातव्यो रसोयं वडवामुखः॥ अग्न्यम्बुनाऽहिपत्रेण सम्मर्याय द्विगुञ्जकम् ॥ ग्रहणी विविधां हन्ति सङ्ग्रहग्रहणीं ज्वरम् ।। भक्षयेत्पर्णखण्डेन हिसिन्धुसुवर्चलः । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, अभ्रक दाडिमञ्च तया बिल्वं कापिकं भृङ्गजैवैः ॥ भस्म, सुहागेकी खील, सामुद्र लवण, जवाखार, पिष्ट्वा तु सुरया युक्तं देयं स्यादनुपानकम् । । सज्जीखार, सेंधा नमक, सोंठ, अपामार्ग (चिरचिटे) सर्वगुल्मं निहन्त्याशु शूलश्च परिणामजम् ॥ पाठान्तराणि. शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण माक्षिक, यवक्षार, ताम्र भस्म और अभ्रक भस्म, समान भाग | १ पालाश वत्सनाभकम् (बरनेके क्षारकी ले कर प्रथम पारद और गन्धककी कज्जली बनावें | जगह बछनाग।) और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको २ स्याच्चणकाम्लेन मर्दयेत् । चीतामूलके काथ और पानके रसमें घोट कर २-२ ३ हस्ति कन्याद्रवैश्चाहो आर्द्रयुक्तं पुटेल्लघु । रत्तीकी गोलियां बना लें। (घृतकुमारी और अद्रककी भावना भी ) For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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