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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [वकारादि का क्षार, पलाशक्षार, और बरनेका क्षारे, १-१ | (६९५७) वडवानलवटी भाग ले कर प्रथम पारे गन्यककी कजली बनावें ( र. का. धे. । अग्निमांद्या. ) और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर नीबू के रसमें घोटें और फिर हाथीसुंडीके रसमें | पारदस्य त्रयो भागास्तावन्तो गन्धकस्य च । घोट कर यथा विधि शरावसम्पुटमें बन्द करके | नागस्य भस्मनस्तद्वच्चत्वारो गगनस्य च ॥ लघुपुटमें पकावें । कटुत्रयं त्रिभागं स्यादष्टौ स्युः शंखभस्मनः । मात्रा-१ माशा। द्वौ क्षारौ सैन्धवं हेम विडं सौवचेलं तथा ॥ | खपरं ग्रावभेदी च पृथग्भागं समाहरेत् । इसके सेवनसे विविध प्रकारका ग्रहणी रोग । और ज्वर नष्ट होता है। सञ्चूयं शृङ्गवेरस्य नीरेण परिभावयेत् ।। मातुलुङ्गस्य नीरेण शमीमलरसेन च। (६९५६) वडवानलरसः (स्वल्पः) (११) | ज्वालामुखीरसेनापि चणकक्षारवारिणा ॥ (रसे. सा. सं. । सन्नि. ज्वरा.) प्रत्येकं भावनास्तिस्रो दातव्या गुरुयुक्तितः । शुद्धताम्रस्य भागैकं मरिचस्य तथैव च। शृङ्गवेररसेनैव ग्राह्या वल्लमिता वटी ॥ विषं तत्तुल्यकं दद्यात्तत्सर्वं श्लक्ष्णचूर्णितम् ॥ अग्निमान्यं निहन्त्येषा वडवानलसज्ञिता। लागलीरससंयुक्तं तत्सर्वं पुटके पचेत् । | मन्देऽग्नावरुचौ गुल्मे अजीर्णं च जलोदरे । रक्तिकाद्वितयं वापि त्रितयं वा प्रकल्पयेत ॥ | विसूच्यां ग्रहणीरोगे तथा वै राजयक्ष्मणि । दोषे व्योषसमायुक्तस्त्रिदोषशमनो भवेत् ।। वैश्वानरेण विहितो वह्निदीपनकारणात् ।। भक्षयेत्पवने चोग्रे वडवानलसज्ञितम् ॥ __शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और नाग भस्म ___शुद्ध ताम्र भस्म १ भाग, काली मिर्चका | ३-३ भाग; अभ्रक भस्म ४ भाग, त्रिकुटा (सोंठ, चूर्ण १ भाग और शुद्ध बछनाग १ भाग ले कर मिर्च, पीपल) ३ भाग, शंख भस्म ८ भाग, एवं सबको एकत्र खरल करके कलियारीके रसमें घोट जवाखार, सज्जीखार, सेंधा नमक, स्वर्ण भस्म, कर यथा विधि शरावसम्पुट में बन्द करके पुट विड नमक, संचल नमक, खपरिया और पाषाणभेद लगावें और उसके स्वांग शीतल होने पर पीस कर १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चर्ण मिला कर अदरकके रस, बिजौ रेके रस शमीकी मात्रा-२-३ रत्ती। जड़के काथ, कलियारीको जड़के काथ, और चनाइसे त्रिकुटेके चर्णके साथ देनेसे सन्निपात खारके पानीकी ३-३ भावना दे कर ३-३ रत्तीकी और उग्र वायुका नाश होता है। गोलियां बना लें। For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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