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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेहप्रकरणम् ] चतुर्थो भागः ३४९ हो जाय तो उसमें २ सेर खांड मिला दें एवं जब | सितया भक्षयेन्मात्रामाढयवाते हनुग्रहे । . पाक लगभग तैयार हो जाय तो उसमें सोंठ, मिर्च, | आक्षेपकादिभग्ने च कटयूरुस्तम्भहृद्महे ।। पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, सर्वाङ्गे सन्धिभङ्गे च वातजाशीतिरोगिणः। पीपलामूल, चव, चीता, बायबिडंग, हल्दी, दारु- | पथ्यो लशुनपाकोयं वर्णायुः पुष्टिकारकः ॥ हल्दी, हपुपा, विधारा, पोखरभूल, अजवायन, १ प्रस्थ छिलके रहित ल्हसनको रातको लौंग, देवदारु, पुनर्नवा, गोखरू, नीमकी छाल, तक्रमें डाल दें और दूसरे दिन प्रातः तक्रसे निकारास्ना, सोया, सतावर, कचूर, असगन्ध और कौंचके लकर (धो कर ) पीस लें। बीज; इनका ११-१। तोला चूर्ण मिला दें।। . तदनन्तर उस ल्हसनको ८ सेर दूधमें पकावें इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे और गाढ़ा हो जाने पर उसमें ४० तोले धी समस्त वातज रोग, शूल, अपस्मार, उरःक्षत, मिला दें। जब पाक लगभग तैयार हो जाए तो गुल्म, उदर रोग, वमन, प्लीहा, वर्म, वृद्धि, कृमि, उसमें रास्ना, शतावर, बासा, गिलोय, कचूर, सोंठ, विबन्ध, आनाह, शोथ, अग्निमांद्य, बलक्षय; हिचकी, देवदोरु, विधारा, अजवायन, चीता, सोया, पुनश्वास, खांसी, अपतन्त्रक, धनुर्वात, बहिरायाम, र्नवा, हर्र, बहेड़ा, आमला, पीपल और बायबिअन्तरायाम, पक्षाघात, अपतानक, अर्दित, आक्षेप, इंगका ११-१ तोला चूर्ण मिलावें एवं पाकके कुब्ज, हनुग्रह, शिरोग्रह, विश्वाची, गृध्रसी, खल्ली | ठण्डा हो जानेपर उसमें ४० तोले शहद मिलाकर शूल, पङ्गुवात, सन्धिवात, बधिरता और समस्त सुरक्षित रक्खें । शूल इत्यादि वातज रोग एवं कफज रोग नष्ट होते और बल बढ़ता तथा शरीर पुष्ट होता है। ___ इसमें मिश्री मिला कर यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे आढ्यवात, हनुग्रह, आक्षेपक, भग्न, (५९३६) रसोनपाकः (२) (लशुनपाकः) कटिस्तम्भ, उरुस्तम्भ, हृद्ग्रह, सर्वाङ्ग वात, सन्धि । भङ्ग, और अस्सी प्रकारके वातज रोग, नष्ट होते (वृ. नि. र. । वातव्या. ; यो. चि. म. । अ. ७.) | तथा वर्ण, आयु और पुष्टिको वृद्धि होती है। तेषग्रगन्धनाशाय रात्रौ तक्रे विनिःक्षिपेत् । । प्रातनिष्कास्य तस्पिष्वा ततो दुग्धे विपाचयेत॥ (५९३७) राजरसायनम् । निस्तुषं लशुनं प्रस्थं क्षीरं प्रस्थचतुष्टयम् । (व. से. । नासा.) विपाच्य सान्द्रीभूतेस्मिन् सर्पिपः कुडवं क्षिपेत्।। चित्रककषायपलशतममृताजातीरसञ्च तुल्यांशम् रास्ना वरी वृषा छिन्ना शठी विश्वा सुरद्रुमम् । प्रक्षिप्य गुडशतश्च द्विपञ्चमूलोकषायेण ।। वृद्धदारुकदीप्याग्निशताहा सपुनर्नवा ॥ तत्तुल्येन च हरीतक्याढकमेकं विपाच्य गुडफलत्रयं पिप्पली च कृमिन्नः कर्षसम्मितम् । पाकम् । विचूर्ण्य शीते मधुनः कुडवं तत्र योजयेत् ।। अर्द्धमस्थं मधुनस्तस्मिन् दद्यात्ततो वैद्यः॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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