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धूपप्रकरणम् ]
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चतुर्थो भाग:
अथ रकारादिधूपप्रकरणम्
(६००१) राजवल्लभधूपः (र.स. क. । उल्ला. ५ ) कस्तूरीन्दुश्च वाहीकं नखं मांसी च सर्जकम् । गुरु सिता सर्व क्रमवृद्धं समं पुरम || स्तोकं स्तोकं क्षिपेत्तैलं दिनैकमथ कुदृयेत् । वतिं कुर्यात् प्रीता सा दिव्यं धूमं विमुञ्चति ।। सर्वदेवप्रियः सर्वमन्त्रसिद्धिप्रदायकः । स्नाने वस्त्रे तागारे धूपोऽयं राजवल्लभः ॥
कस्तूरी १ भाग, कपूर २ भाग, केसर ३ भाग, नखी ४ भाग, जटामांसी ५ भाग, राल ६ भाग, नागरमोथा ७ भाग, अगर ८ भाग और मिश्री ९ भाग तथा गूगल सबके बराबर ( ४५ भाग ) लेकर गूगल के अतिरिक्त सब चीजोंका बारीक चूर्ण बना लें और फिर उसे गूगल में मिला कर उसमें थोड़ा थोड़ा तेल डालते हुवे दिन भर कूढें । तदनन्तर उसकी बत्तियां बनाकर सुरक्षित रक्खें ।
इन्हें जलानेसे अत्युत्कृष्ट सुगन्धियुक्त धूम्र निकलता है ।
यह धूप सर्व - देवप्रिय और सर्वमन्त्र सिद्धिदायक है | एवं स्नान - जल, वस्त्र तथा रतागारको सुगन्धित करनेके लिये उपयोगी है ।
(६००२) रालादिधूप : (१) ( यो. र. । अर्शा. ; वृ. यो त । त. ७१ ) रालाचूर्णस्य तैलेन सार्षपेण युतस्य च ।
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धूमदानेन युक्त्याsर्शी रक्तस्रावी निवर्त्तते ॥
रालके चूर्णको सरसोंके तैलमें मिला कर धूनी देनेसे अर्श (बवासीर) का रक्तस्राव बन्द हो जाता है ।
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(६००३) रालादिधूपः (२) ( वृ. नि. र. । मसूरिका. ) रालहिरसोनैश्च धूपयेत्ता मसूरिकाः । कृमयो न पतन्त्यत्र जाताः शाम्यन्ति ते लघुः ॥ राल, हींग और लहसन समान भाग लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
इसकी धूप देने से मसूरिकामें कृमि उत्पन्न होते और यदि हो गए हों तो नष्ट हो जाते हैं।
नहीं
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(६००४) रुगादिधूपः
(वै. जी. | विला. १ )
अयि कुशाग्रसमान मते मतिमतामतिमन्मथमन्थरे । ज्वरहरं रुरिष्टशिवावचायवहविर्जतुसर्षपधूपनम् ॥
कूठ, नीम के पत्ते, हर्र, बच, जौ, लाख और सरसों समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इति रकारादिधूपप्रकरणम्
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इसे घी में मिलाकर धूप देने से ज्वर नष्ट होता है ।
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