SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [रकारादि राल, लाख, पमाड़के बीज, मूलीके बीज रास्ना, नीलोत्पल, देवदारु, लाल चन्दन, और साठीके चावल समान भाग लेकर सबको ! मुलैठी और खरैटीको जड़ समान भाग लेकर एकत्र मिला कर तकके साथ पीस कर लेप | सबको बारीक पीस कर घी तथा दूधमें मिलाकर करनेसे दाद नष्ट होता है। लेप करनेसे वातज वीसर्प नष्ट होता है । (५९९७) रास्नादिलेपः (१) __ (५९९९) रास्नादिलेपः (३) (व. से. । वातरक्ता.) (वैद्य जीवन । विलास १) रास्नागुडूचीमधुकं पले वे रास्नानागरलुङ्गमूलहुतभुग्दाळग्निमन्थैः समैसजीरकं सार्षपकं पयश्च । लेपः स्यादरविन्दवन्धनयने शोथव्यथाध्वंसनः।। घृतं मुसिद्धं मधुशेषयुक्तं रास्ना, सांठ, बिजौ रे नीबूकी जड़, चीतामूल, रक्तानिलात प्रणुदेत्यदेहम् ॥ दारुहल्दी और अरनीकी जड़; इन सबका समान रास्ना, गिलोय, मुलैठी, जीरा और सफेद सरसों २-२ पल (१०-१० तोले ) लेकर भाग चूर्ण ले कर सबको (पानीके साथ ) एकत्र | पीस लें। सबको एकत्र पीस कर कल्क बनावें। तदनन्तर ५ सेर घीमें यह कल्क और २० इसका लेप करनेसे सन्निपातके पश्चात् सेर दूध मिलाकर पकावें । जब दूध जल जाए तो उत्पन्न होने वाला कर्णमूलका शोथ नष्ट होता है । घृतको छान लें। (लेपको ज़रा गर्म कर लेना चाहिये । ) इस घीमें (१० तोले ) मोम मिलाकर (६०००) रेचनयोगः सुरक्षित रखें। ( यो. र. । बालरोगा.) इसका लेप करनेसे वातरक्त नष्ट होता है। पिष्ट्वा गन्धर्वबीजानि त्वाखुविनिम्बुवारिणा। (५९९८) रास्नादिलेपः (२) । | नाभौ गुदे वा लेपेन शिशूनां रेचनं परम् ॥ (वृ. यो. त. । त. १२३. ; व. से. । विसर्पा.; शा. सं.। खं. ३ अ. ११; ____ अरण्डीके बीजोंकी गिरी और चूहेकी विष्ठा वृ. नि. र. ; यो. र. । विसा.) समान भाग ले कर दोनोंको नीबूके रसमें पीसकर रास्नानीलोत्पलं दारुवन्दनं मधुकं बला। । बालककी नाभि या गुदा पर लेप करनेसे उसे घृतक्षीरयुतो लेपो वातवीसर्पनाशनः ॥ विरेचन हो जाता है । इति रकारादिलेपप्रकरणम् For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy