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मिश्रप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
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(५७११) मूत्रयोगः
_ (५७१४) मूषकपुरीषयोगः ( वृ. मा. । कर्णरो.)
(यो. र. । प्रदरा.)
आखोः पुरीष पयसा निपीय अष्टानामपि मूत्राणां मूत्रेणान्यतमेन च । कोष्णेन पूरयेत्कर्ण कर्णशूलोपशान्तये ॥
वर्बलादेकमहर्द्व यहं वा।
स्त्रियस्त्र्यहं वा प्रदरं सवन्त्यः ___ अष्ट मूत्र ( गो, बकरी, भेड़, भैंस, घोड़ी,
__ प्रसह्य पारं परमाप्नुवन्ति ॥ हथिनी, ऊंटनी और गधीके मूत्र ) में से किसी
चूहेकी मींगन (विष्टा) को अग्नि बलानुसार एकको थोड़ा गर्म करके कानमें भरनेसे कर्ण शूल
१, २ या ३ दिन दूधके साथ पीनेसे स्त्रियोंकाः नष्ट होता है।
प्रदर रोग नष्ट हो जाता है। (५७१२) मूलिकाबन्धनम् ।
(५७१५) मृत्पिण्डप्रयोगः (ग. नि. ; भै. र. । ज्वरा.)
(व. से. । बालरो.) काकजङ्घा बला श्यामा ब्रह्मदण्डी कृताअलिः। मृत्पिण्डेनाग्निवर्णेन क्षीरसिक्तेन सोष्मणा । पृष्ठिपर्णीह्यपामार्गस्तथाभृङ्गरजोऽष्टमः ॥ स्वेदयेदुत्थितां नाभिं शोथस्तेनोपशाम्यति ॥ एषामन्यतमं मूलं पुष्येणोद्धृत्य यत्नतः ।।
मिट्टीके ढेलेको अग्निमें तपा कर लाल करें रक्तसूत्रेण संवेष्टय बद्धमेकाहिकं जयेत् ॥
और फिर उस पर दूध छिड़कें; इससे जो भाप
(वाष्प) निकले उससे बालककी नाभिको सेकनेसे काकजंघा, बला (खरैटी), बिधारा, ब्रह्म
नाभि शोथ नष्ट होता है। दण्डी, लज्जाल, पृष्ठपर्णी, अपामार्ग ( चिरचिटा ) और भंगरे में से किसी एककी जड़को पुष्य नक्षत्रमें
(५७१६) मृतसञ्जीवनोगदः उखाड़ कर लाल डोरेमें बांध कर रोगीके ( शिर
(च. स. । चि. अ २३) पर ) बांधनेसे इकतरा ज्वर नष्ट होता है।
स्पृक्काप्लवस्थौणेयकाकाक्षी शैलेयरोचनातगरम् (५७१३) मूलिकादिधारणम्
ध्यामककुङ्कुममांसीसुरसाग्रेलालकुष्ठघ्नम् ॥
| बृहती शिरीषपुष्पं श्रीवेष्टकपद्मचारदिविशाला ( वृ. नि. र. । गुल्म.)
सुरदारुपद्मकेशरसावरकमनःशिलाकौन्त्यः ॥ लागल्या वापामार्गोत्यैरिन्द्रवारुणिकापि वा।। | जात्यर्कपुष्परसरजनीद्वयंहिङ्गुपिप्पलीलाक्षाः । शूलं योनिगतं स्त्रीणां धारणं पुष्परोधनुत् ॥ जलमुद्पर्णिचन्दनमधूकमदनसिन्धुवाराश्च ॥
लांगली ( कलियारी ) की जड़, या चिरचि- शम्पाकलोध्रमयूरकगन्धफलीनाकुलीविडङ्गाश्च टेकी जड़ अथवा इन्द्रायणकी जड़ योनिमें रखनेसे | पुष्ये संहृत्य समं पिष्ट्वा गुलिका विधेयाः स्युः योनि शूल नष्ट होता और रुका हुवा ऋतुस्राव । सर्वविषघ्नो जयकृद्विपमृतसञ्जीवनो ज्वरनिहन्ता खुल जाता है।
घेयविलेपनधारणधूमग्रहहस्थश्च ॥
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