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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] चतुर्थो भागः - - - - (५७११) मूत्रयोगः _ (५७१४) मूषकपुरीषयोगः ( वृ. मा. । कर्णरो.) (यो. र. । प्रदरा.) आखोः पुरीष पयसा निपीय अष्टानामपि मूत्राणां मूत्रेणान्यतमेन च । कोष्णेन पूरयेत्कर्ण कर्णशूलोपशान्तये ॥ वर्बलादेकमहर्द्व यहं वा। स्त्रियस्त्र्यहं वा प्रदरं सवन्त्यः ___ अष्ट मूत्र ( गो, बकरी, भेड़, भैंस, घोड़ी, __ प्रसह्य पारं परमाप्नुवन्ति ॥ हथिनी, ऊंटनी और गधीके मूत्र ) में से किसी चूहेकी मींगन (विष्टा) को अग्नि बलानुसार एकको थोड़ा गर्म करके कानमें भरनेसे कर्ण शूल १, २ या ३ दिन दूधके साथ पीनेसे स्त्रियोंकाः नष्ट होता है। प्रदर रोग नष्ट हो जाता है। (५७१२) मूलिकाबन्धनम् । (५७१५) मृत्पिण्डप्रयोगः (ग. नि. ; भै. र. । ज्वरा.) (व. से. । बालरो.) काकजङ्घा बला श्यामा ब्रह्मदण्डी कृताअलिः। मृत्पिण्डेनाग्निवर्णेन क्षीरसिक्तेन सोष्मणा । पृष्ठिपर्णीह्यपामार्गस्तथाभृङ्गरजोऽष्टमः ॥ स्वेदयेदुत्थितां नाभिं शोथस्तेनोपशाम्यति ॥ एषामन्यतमं मूलं पुष्येणोद्धृत्य यत्नतः ।। मिट्टीके ढेलेको अग्निमें तपा कर लाल करें रक्तसूत्रेण संवेष्टय बद्धमेकाहिकं जयेत् ॥ और फिर उस पर दूध छिड़कें; इससे जो भाप (वाष्प) निकले उससे बालककी नाभिको सेकनेसे काकजंघा, बला (खरैटी), बिधारा, ब्रह्म नाभि शोथ नष्ट होता है। दण्डी, लज्जाल, पृष्ठपर्णी, अपामार्ग ( चिरचिटा ) और भंगरे में से किसी एककी जड़को पुष्य नक्षत्रमें (५७१६) मृतसञ्जीवनोगदः उखाड़ कर लाल डोरेमें बांध कर रोगीके ( शिर (च. स. । चि. अ २३) पर ) बांधनेसे इकतरा ज्वर नष्ट होता है। स्पृक्काप्लवस्थौणेयकाकाक्षी शैलेयरोचनातगरम् (५७१३) मूलिकादिधारणम् ध्यामककुङ्कुममांसीसुरसाग्रेलालकुष्ठघ्नम् ॥ | बृहती शिरीषपुष्पं श्रीवेष्टकपद्मचारदिविशाला ( वृ. नि. र. । गुल्म.) सुरदारुपद्मकेशरसावरकमनःशिलाकौन्त्यः ॥ लागल्या वापामार्गोत्यैरिन्द्रवारुणिकापि वा।। | जात्यर्कपुष्परसरजनीद्वयंहिङ्गुपिप्पलीलाक्षाः । शूलं योनिगतं स्त्रीणां धारणं पुष्परोधनुत् ॥ जलमुद्पर्णिचन्दनमधूकमदनसिन्धुवाराश्च ॥ लांगली ( कलियारी ) की जड़, या चिरचि- शम्पाकलोध्रमयूरकगन्धफलीनाकुलीविडङ्गाश्च टेकी जड़ अथवा इन्द्रायणकी जड़ योनिमें रखनेसे | पुष्ये संहृत्य समं पिष्ट्वा गुलिका विधेयाः स्युः योनि शूल नष्ट होता और रुका हुवा ऋतुस्राव । सर्वविषघ्नो जयकृद्विपमृतसञ्जीवनो ज्वरनिहन्ता खुल जाता है। घेयविलेपनधारणधूमग्रहहस्थश्च ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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