________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
लोहेके बारीक पत्रोंको अग्निमें तपा तपा कर सात तक्रस्य चाम्लस्य चतुःपलानि बार इस काथमें बुझानेसे उसके गिरि सम्भव दोष कर्ष च कर्ष पृथगौषधानाम् । नष्ट हो जाते हैं।
व्योषाजमोदा चविकाऽनलानां (६४३१) लोहशोधनम् (२)
मूलं प्रदद्यादपि पिप्पलीनाम् ॥ . (रसे. सा.सं.) .
सिन्धुप्रसूतं सविडङ्गचूर्ण
तक्रेण हन्याद् ग्रहणीं समस्ताम् । तप्तानि सर्वलोहानि कदलीमूलवारिणि ।
अर्शा सि शोथं परिणामशूलं सप्तधा त्वभिषिक्तानि शुद्धिमायान्त्यनुत्तमाम् ॥ शुलं च दीप्तं तु करोति वहिम ॥
सब प्रकारके लोहोंको तपा तपा कर केलेकी शुद्ध लोहेके बारीक पत्रों पर सोनामक्खी जड़के रसमें सात बार बुझानेसे वे शुद्ध हो और कनेरकी जड़का लेप करके उन्हें अग्निमें तपा जाते हैं।
तपा कर बार बार तक्रमें बुझावें । इस प्रकार भस्म (६४३२) लोहशोधनम् (३) कियो हुवा लोह ४० तोले, घी ५ तोले, तिलका (र. प्र. सु. । अ. ४ ; र. र. स. । पू. अ. ५)
तेल ५ तोले, त्रिफलेका काथ ६० तोले, खट्टी सामुद्रलवणस्तद्वल्लेपितं त्रिफलाजले।
छाछ २० तोले एवं सोंठ, मिर्च, पीपल, अजमोद, निर्वापितं भवेच्छुद्धं सत्यं गुरुवचो यथा॥
चव, चीता, पीपलामूल, सेंधा नमक और बायबि
डुंगका चूर्ण १।-११ तोला ले कर सबको एकत्र लोहे के पत्रों पर समुद्र लवणका लेप करके
मिला कर सुरक्षित रक्खें। उन्हें अग्निमें तपा तपा कर त्रिफलाके काथमें
इसे तकके साथ सेवन करनेसे समस्त प्रकारबुझानेसे लोह शुद्ध हो जाता है।
का संग्रहणी रोग, अर्श, शोथ, शूल, परिणामशूल (६४३३) लोहसारकल्पः नष्ट होता और अग्नि दीप्त होती है । (र. का. धे.। रसायना.)
(६४३४) लोहसुन्दरः आलिप्य तापीकरवीरकाभ्यां | ( र. रा. सु. ; र.का.धे.; वृ. नि. र. । पाण्ड्वा . ; वैश्वानरे प्रज्वलिते निधाय ।
रसे. चि. म. । अ. ९) तप्तं सुतप्तं विनियोज्य तक्रे
सूतभस्म मृतलोहगन्धको - निर्वाप्य वारान्बहुशः सुलोहम् ॥
भागवदितमिदं विनिःक्षिपेत् । एभिः प्रकारैः सुमृताच्च लोहा
दीर्घनालढपिकोदरे चूर्णीकृताचापि पलानि चाष्टौ । मृत्स्नया च परिवेष्टय तां क्षिपेत् ॥ सर्पिः पलं तैलपलं पलानि
चुल्लिकोपरि च कूपिकामुखे चत्वारि चाष्टौ हि वरारसस्य ॥
प्रक्षिपेच्च वरशाल्मलीद्रवम् ।
For Private And Personal Use Only