________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
८०१
शुद्ध पारद, सुहागेकी खील, काली मिर्च, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, शुद्ध गंधक और निसोत १-१ भाग, सेठ २ भाग लोह भस्म, कौड़ी भस्म, चांदी भस्म और अतीसका और शुद्र जमालगोटा ९ भाम ले कर प्रथम पारे चूर्ण ११-१। तोला ले कर सबको एकत्र खरल गन्धककी कल्जली बबावें और फिर उसमें अन्य करके धनिये और सांठके काथमें पृथक पृथक घोट ओषधियोंका चर्ण मिला कर पानीके साथ खरल | कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। करें और उस कल्क (लुगदी) को ताम्र पात्रमें
अनुपान-अधजली, बेलगिरीका चर्ण और रख कर थोड़ी देर कण्डोंकी मृदु अग्नि पर स्वेदित | गुड़ एकत्र मिला कर बकरीके दूध या जामनकी करके १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें।
छालके रसके साथ पीना चाहिये। इनमेंसे १ गोली शीतल जलके साथ खानेसे | इनके सेवनसे अतिसार, घोर ज्वर, ग्रहणी, उस समय तक विरेचन होता रहता है जब तक अरुचि, आमातिसार, शूलयुक्त अतिसार, रक्तातिसार, कि उष्ण जल न पिया जाय।
पिच्छिल (लेसदार) मलवाला अतिसार, भ्रम और पथ्य-~-दही भात ।
शोथका नाश होता है। इसे खानेसे आम, पुराने उदर रोग, प्रवृद्ध वृहद्गर्भचिन्तामणिरसः गुल्म और कफका नाश तथा अग्निकी वृद्धि | ___ प्र. सं. १५५६ गर्भ चिन्तामणि रसः (वृहद) होती है।
देखिये। (७११४) वृहद्गगनसुन्दररसः (७११५) वृहद्गुल्मकालानलो रसः ( रसे. सा. सं. ; र. चं. । अतीसारा. )
( भै. र. । गुल्मरो.) पारदं गन्धकं चाभ्रलोहं चापि वराटकम् । | अभं लौह रसं गन्धं टङ्गणं कटुकं वचाम् । रूप्यं चातिविषं कर्ष समभागं प्रकल्पयेत् ॥ द्विक्षारं सैन्धवं कुष्ठं त्र्यूषणं सुरदारु च ।। धान्यशुण्ठीकृतकार्भावयेच्च पृथक पृथक् । पत्रमेलां त्वचं नागं खादिरं सारमेव च । गुमाप्रमाणां वटिकां कारयेत्कुशलो भिषक् ।। गृहीत्वा समभागेन श्लक्ष्णचूर्ण प्रकल्पयेत् ॥ भक्षयेत्पातरुस्थाय गुरुदेवद्विजाचकः। जयन्तीचित्रकोन्मत्तकेशराजदलं तथा । दग्धविल्वं गुडेनैव कुर्य्यात्तदनुपानकम् ॥ निष्पीडय स्वरसं नीत्वा भावयेत्कुशलो भिषक । अजादुग्धेन वा पेयं जम्बूत्वक्साधितं रसम् । चतुर्गुापमाणेन वटिकाः कारयेत्ततः। अतीसारे ज्वरे घोरे ग्रहण्यामरुचौ तया ॥ उत्थाय भक्षयेत्पातरनुपानं जलं पयः ।। सामे सशूले रक्ते च पिच्छात्रावे भ्रमे तथा । | गुल्मं पञ्चविधं हन्ति यकृत्प्लोहोदराणि च । शोथे रक्तातिसारे च संग्रहग्रहणीषु च ॥ । कामलां पाण्डुरोगश्च शोथश्चैव सुदारुणम् ॥ ૧૦૧
For Private And Personal Use Only