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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
लघु पुटमें पाक करें । तदनन्तर उसमें उसका । (५५५१) महात्रिपुरभैरवरसः तीसवां भाग शुद्र बछनाग ( मीठा विष ) का चूर्ण (र. का. धे. । शूला.) मिला कर खरल करें।
| भागौ रसस्य भागः स्याटेम्नः पिष्टी विधाय च इसे १ रत्ती मात्रानुसार भैसके घीके साथ | तया द्वादशभागानि ताम्रपत्राणि लेपयेत् ।। खा कर ऊपरसे १ माशा बाबचीका चूर्ण शहद उर्खाधो लवणं दवा पत्रमानं समन्ततः । और धीमें मिलाकर चाटना चाहिये । सिञ्चन्मत्स्याक्षिनीरेण रुद्धवा यामचतुष्टयम् ॥
इसके सेवनसे समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट | क्षारस्य मृगशृङ्गस्य चूर्ण योज्यं समन्ततः । होते हैं।
पचेच्छूलहरः मूतो महात्रिपुरभैरवः ॥ महातालेश्वररसः (४)
माषो मध्वाज्यसंयुक्तो देयोऽस्य परिणामजम्।
अन्ये त्वेरण्डतलेन हि त्रययुतो हि सः ॥ (धन्व. । वातरक्त.)
२ भाग शु पारद में १ भाग शुद्ध स्वर्णभा. भै. र. भाग २ प्रयोग संख्या २६८१
पत्र मिलाकर इतना धोटें कि सबकी कोमल पिठी " तालेश्वरो रसः न. ४ ” देखिये ।
बन जाए । अब १२ भाग ताम्रपत्रों पर इसका महातालेश्वररसः (५) लेप करके उन्हें, नीचे ऊपर सेंधा नमकका चूर्ण ( र. र. । कुष्ठ. ; र. का. धे. । कुष्ठा. ; र. भर कर हाण्डीमें रखें और उसके ऊपर मछेछी र. स. । अ. २०; वृ. यो. त. । त. १२० (मत्स्याक्षि ) का रस डाल कर हाण्डीके मुख पर यो. त. । त. ६२ )
शराव ढक कर सन्धिको अच्छी तरह बन्द कर दें। भा. भै. र. भाग २ प्र. सं. २६५२ "ताल- । तदनन्तर इसे ४ पहरकी अग्नि दे कर, हाण्डीके केश्वरो रसः (महान) नं. १३ ” देखिये । स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे ताम्र पत्रोंको निकाल महातालेश्वररसः (६)
लें; और उन्हें फिर उसी हाण्डीमें मृगशृंगकी (र. चि. म. । स्त. २)
भस्मके बीचमें रख कर ४ पहरकी अग्नि दें।
इसे १ माशेकी मात्रानुसार शहद और धीके भा. भै. र. भाग २ में प्रयोग सं. २६५४
साथ खिलानेसे परिणाम शूल नष्ट होता है । अन्य 'तालकेश्वरो रसः । नं. १५ देखिये ।।
प्रकारके शूलोमें इसे अरण्डके तेल और हिंगुत्रय महात्रिगन्धरसः
(हींग, हिंगुपत्री, और नाड़ीहिंगु ) के साथ देना (र. का. धे. । कुष्ठा.)
चाहिये । ( व्यवहारिक मात्रा १ रत्ती) भा. भै. र. भाग २ प्रयोग संख्या २७१५
महाद्रावकरसः " त्रिगन्ध रसः ” देखिये । उसमें इसकी अपेक्षा गन्धक अधिक है। मकारादि मिश्रप्रकरणमें देखिये ।
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