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रसप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
३१३ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म और मर्य चाकरसेन चित्रकैः सोंठ, मिर्च, पीपल, कुटकी, त्रायमाणा, अतीस, प्रक्षिपेच्च सुदृढे मुभाजने ॥ पाठा, नीमकी छाल, हरं, चीतामूल, पितपापड़ा, ताम्रभाजनमथोपरिस्थितं
और नागरमोथा, इनका चूर्ण १-१ भाग तथा रोधयेत्पटमृदा सदैव हि । लोह भस्म सबसे आधी (७॥भाग ) लेकर सबको याममात्रपुटितं शनैः शनैएकत्र मिलाकर १ दिन गिलोयके काथमें घोटें
निक्षिपेच्च जलमूर्ध्वभाजने ॥ और ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें।
ताम्रपत्रकुहरे रसो भवेइनके सेवनसे प्लीहोदर, यकृत, गुल्म, तथा
द्रोगराजविनिबर्हणक्षमः ॥ एकाहिक द्वयाहिक, तृतीयक और चातुर्थिक ज्वर
शुद्ध पारद, शुद्ध बछनाग ( मोठा विष ), नष्ट होता है।
स्वर्ण भस्म और शुद्ध गन्धक समान भाग ले कर अनुपान-अदरकका रस ।
प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर (५८२७) यक्ष्मकेसरी रसः
उसमें बछनाग तथा स्वर्ण मिला कर उसे १-१
दिन अदरक और चीतेके रसमें घोटें । तदनन्तर (धन्व. । राजयक्ष्मा.)
उसे मिट्टीके दृढ़ पात्रमें डालकर उसके ऊपर शुद्ध त्रिकटुत्रिफलैलाभिर्जातीफललवङ्गकैः ।
ताम्रकी कटोरी ढक दें और दोनोंकी सन्धिको नवभागोन्मितैस्तुल्यं लोहपारदसिन्दुरम् ॥ अच्छी तरह बन्द करके उस पर कपड़मिट्टी कर दें मधुना क्षयरोगांश्च हन्त्ययं यक्ष्मकेशरी ॥ एवं ताम्रकी कटोरीमें पानी भर दें। अब उसे चूल्हे
सेठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, पर चढ़ाकर उसके नीचे १ पहर तक धीमी अग्नि इलायची, जायफल और लौंग, इनका चूर्ण १--१ | जलावें । एक पहर पश्चात् पात्रके स्वांग शीतल भाग तथा लोह भस्म, पारद भस्म और रससिन्दूर होने पर उसका मुख खोल कर उसके भीतर ताम्र३-३ भाग ले कर सबको एकत्र घोट कर सुर- पात्रमें लगे हुवे रसको छुड़ाकर सुरक्षित रक्खें । क्षित रक्खें ।
यह रस राजयक्ष्माको नष्ट करता है । इसके सेवनसे क्षय रोग नष्ट होता है।
(मात्रा-१ रत्ती ।) अनुपान-मधु। ( मात्रा-२ रत्ती।)
(५८२९) यक्ष्मान्तकलौहः (५८२८) यक्ष्महरो रसः
(भै. र. । राजयक्ष्मा.) (र. प्र. सु. । अ. ८; र. चं. । राजयक्ष्मा.) रास्नातालीशकर्पूरभेकपर्णीशिलाढ्यैः । शुद्धसूतविषके च हाटकं
| त्रिकत्रयसमायुक्तैलौंहो यक्ष्मान्तको मतः॥ - गन्धकेन सहितं समांशकम् । सर्वोपद्रवसंयुक्तमपि वैद्यविवर्जितम् ।
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