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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ लकारादि
लोह चूर्ण, भंगरा, हर्र, बहेड़ा, आमला और | उपदंशं निहन्त्येतद्वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥
काली मिट्टी समान भाग ले कर चूर्ण करके १ मास तक ईखके रस में भिगोए रक्खें ।
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इसका लेप करने से सफेद बाल जड़से काले हो जाते हैं ।
(६३२१) लोहादिलेप: ( र. र. । उपदंशा )
अयोरजस्ताम्ररजस्त्रिफलागैरिकस्तथा ।
इति लकारादिलेपप्रकरणम्
लघुभानुमतिवर्तिः
प्र. सं. ४९२३ " भानुमती वर्तिः (१) (लघु) देखिये ।
अथ लकाराद्यञ्जनप्रकरणम्
(६३२२) लशुनाद्यञ्जनम् (१) ( ग. नि. । ज्वरा. १; वृ. नि. र. ) शुनं पिप्पली राजी वचा पथ्या समांशकाः। एतच्चूर्ण जले पिष्टं चक्षुःस्थं ज्वरनाशनम् ॥ लहसन, पीपल, राई, बच और हर्र समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे पानी में पीस कर आंखो में लगाने से ज्वर नष्ट होता है ।
(६३२३) लशुनाद्यञ्जनम् (२) ( यो. र. ; वृ. नि. र. । सन्निपाता. ) लशुनमरिचकृष्णामाणिमन्थोग्रगन्धा - शुकतरुफलवी जैर्विश्वगोमूत्रपिष्टैः ।
लोह चूर्ण, ताम्र चूर्ण, हर्र, बहेड़ा, आमला और गेरु समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
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इसे ( पानी में ) पीस कर लेप करनेसे उपदेश नष्ट होता है ।
( लोह और ताम्रकी भस्म लेनी चाहिये । )
aayaa विकारे रक्तपित्तप्रभेदे गदितमगद विद्भिर्नेत्रयोरञ्जनं स्यात् ॥
लहसन, काली मिर्च, पीपल, सेंधानमक, बच, सिरस के बीज और सोंठ समान भाग ले कर चूर्ण
इसे गोमूत्र में पीस कर आंखों में लगानेसे कफवातज और रक्तपित्त तथा अतिसार युक्त सन्निपात नष्ट होता है ।
(६३२४) लाक्षादियोगः ( व. से. । नेत्र रोगा. )
लाक्षानिर्गुण्डी भृङ्गदावरसेन
श्रेष्टं कार्पासं भावितंसप्तकृत्वः । दीपाः प्रज्वाल्याः सर्पिषीं तत्समुत्था श्रेष्टा पिल्लानां रोपणार्थं मषी सा ॥
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