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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि शीतं सकम्यं परिदाहयुक्तं
आंखका घाव, पिल्ल और पटल आदि समस्त विनाशयेद् द्वित्रिदिनप्रयुक्तः ॥ रोग नष्ट होते हैं।
महाबलाकी जड़ और सेठिके काथमें पीप- । (५०१४) महौषधादिकाथः (१) लका चूर्ण मिलाकर पीनेसे शीत, कम्प और दाह
(वृ. मा. । आमाधि.) युक्त ज्वर २-३ दिनमें ही नष्ट हो जाता है।
महौषधगुडूच्योस्तु क्वार्थ पिप्पलिसंयुतम् । महारारनादिकाथ:
पिबेदामे सरुक्शोफे कटीशूले विशेषतः ॥ रास्नादिकाथ (महा) देखिये
साठ और गिलोयके क्वाथमें पीपलका चूर्ण (५०१३) महावासादिक्काथ:
मिला कर पीनेसे पीड़ा और शोथ युक्त आमवात ( वृ. यो. त.। त. १३१; वृ. नि. र. नेत्ररोगा.)
और विशेषतः कमरकी पीड़ा शान्त होती है। वासा घनं निम्बपटोलपत्रं
(५०१५) महौषधादिकाथः (२) तिक्तामृता वत्सकचन्दनं च ।
( भै. र. । ज्वरा.; ग. नि. । ज्वरा. १; वृ. कलिङ्गदाव: दहनं च शुण्ठो
नि. र. । विषमज्वर.; वृ. मा. । ज्वरा.) भनिम्बधात्री विजया विभीतम् ॥ महौषधामृतामुस्तचन्दनोशीरधान्यकैः । यवांश्च निष्काथ्य तमष्टशेष
| क्वाथं तृतीयकं हन्ति शर्केरामधुयोजितः॥ पूर्वेऽह्नि संस्थापितपग्रिमेऽसि ।
साँठ, गिलोय, नागरमोथा, लाल चन्दन, प्रातः पिबेदर्बुदशुक्रकण्डू
खस और धनिया समान भाग लेकर काथ तैमियंदाहत्रणपिल्लरोगान् ॥
बनावें । पिण्डोपनाहौ पटलानि नेत्र
इसमें खांड और शहद मिलाकर पीनेसे रोगानशेषानपरांश्च हन्यात् ॥
तृतीयक ( तिजारी ) ज्वर नष्ट होता है । बासा ( अडूसा ), नागरमोथा, नीमकी
__ (५०१६) महौषधादिकाथः (३) छाल, पटोल पत्र, कुटकी, गिलोय, कुड़ेकी छाल, लाल चन्दन, इन्द्रजौ, दारुहल्दी, चीतामूल, सोंठ,
(वृ. मा.। मूर्छा.; ग. नि. मूर्छा. १६) चिरायता, आमला, हर्र, बहेड़ा और जौ समान भाग
महौषधामृता क्षुद्रा पौष्करं ग्रन्थिकोद्भवम । ले कर सबको अधकुटा करके सायंकाल आठ गुने
पिबेत्कणायुतं क्याथं मूर्छायां च मदेषु च ॥ पानीमें पकावें । जब आठवां भाग पानी रह जाय साठ, गिलोय, कटेली, पोखरमूल और पीपतो छान लें।
| लामूल समान भाग ले कर काथ बनावें । इसे दूसरे दिन प्रातःकाल सेवन करने से अर्बुद, इसमें पीपलका चूर्ण मिला कर सेवन करनेत्रशुक्र, आंखकी खुजली, तिमिर, आंखोकी दाह, | नेसे मूर्छा और मदका नाश होता है।
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