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रसप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
५३९ खरल करके शहदमें मिला कर १-१ माशेकी । (६३८७) लोहचूर्णम् गोलियां बनावें ।
( रसे. चि. म. । अ. ९.; रसे. सा. सं. । अश्मरी. इन्हें अनुपान बिनाही सेवन करनेसे वात- वृ. मा. । मूत्रकृच्छा.; वृ. यो. त. । पित्त ज्वर नष्ट होता है।
____त. १००; ग. नि. । मूत्रकृच्छा २७;
वं. से. । मूत्रकृच्छ्रा .) (६३८५) लोहगुटिका (२)
| अयोरजः सूक्ष्मपिष्टं मधुना सह योजितम् । (च. द. ; र. का. धे. । परिणाम शूला, ; र. |
| मूत्रकृच्छ्रे निहन्त्याशु त्रिभिलेहैन संशयः ।। र.। शूला. ; वृ. नि. र. ; वं. से. । परिणा.)
लोह भस्मको शहद में मिला कर सेवन करने लोहस्य रजसो भागास्त्रिफलायास्तथा त्रयः ।।
'| से ३ बारमें ही मूत्रकृच्छू नष्ट हो जाता है । गुडस्याष्टौ तथा भागा गुडान्मूत्रं चतुर्गुणम् ॥ एतत्सर्वं च विपचेदगुडपाकविधानवित् ।। (६३८८) लोहचूर्णवटकः लिहेच्च तद्यथाशक्ति क्षये शूलेऽन्नपाकजे ॥
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ८) लोह भस्म ३ भाग, त्रिफलाका चूर्ण ३ भाग, ज्यूषणं त्रिफलामुस्तविडङ्गगुड़ ८ भाग और गोमूत्र ६४ भाग लेकर सबको श्चित्रकं तु समभागत एव । एकत्र मिला कर पकावें । जब गुड़के समान गाढा
भावयेच्च खलु सप्तदिनानि हो जाय तो उतार कर सुरक्षित रक्खें ।
लोहचूर्णमपि चेक्षुरसेन ॥ इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे क्षय खल्लितं पुनरपि प्रवरं स्यात् और परिणाम शूलका नाश होता है।
शीलितं तु मधुनापि घृतेन । ( मात्रा-१-१॥ माशा । )
पाण्डुरोगहृदयामयकुष्ठ
कामलार्शः सहलीमकहारि ॥ (६३८६) लोहचूर्णप्रकारः
सेोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, ( आ. वे. प्र. । अ. ११)
| नागरमोथा, बायबिडंग और चीता; इनका चूर्ण संशुद्धं लोहनं पत्रं तप्तं तप्तं वराजले। तथा लोह भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र गोजले वा मुहुः क्षिप्त क्षिप्रं चूर्णत्वमाप्नुयात् ॥ मिला कर सात दिन तक ईखके रस में घोटें।
शुद्ध लोहपत्रोंको तपा तपा कर बार बार | | इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे त्रिफलाके क्वाथ या गोमूत्रमें बुझानेसे लोहका शीव पाण्डु, हृदय रोग, कुष्ट, कामला, अर्श और ही चूर्ण हो जाता है।
| हलीमकका नाश होता है।
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