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रकरणम् ]
(६१०३) रसादिगुटिका (र. रा. सु. । वातरोगा.)
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चतुर्थी भागः
पारदस्तालको गन्धस्त्रयः शुद्धाः समाः स्मृताः । जातिफलं जातिकोशं भङ्गावीजं लवङ्गकम् ॥ aratत्थकं शुद्धं शुद्धं त्र्यूषं समं पृथक । मागवलीद कर सैर्मर्दयेत् महरद्वयम् ॥ सोसनस्य शिफानीरैर्दयेत्तु तथाविधम् । अष्टगुञ्जामिता कार्य गुटिका च भिषखरैः । प्रभाते चैव साया वटी देया विशेषतः । मधुना नीरयुक्तेन गिलेचां वै वटीं शुभाम् ॥ पक्षाघातं निहत्याशु रसादिगुटिका स्वियम् । चन्द्रटेन समाख्याता योगरत्नसमुच्चये ॥
शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक १-१ भाग लेकर कज्जली बनावें और फिर उसमें १ भाग शुद्ध हरताल तथा १-१ भाग जायफल, जावत्री, भांगके बीज, लौंग, अजवायन, तूतियाकी भस्म, सोंठ, मिर्च और पीपल; इनका चूर्ण मिलाकर २ -२ पहर पानके रस और सासन (एक यूनानी औषध) की जड़ के रस या काथ में खरल करके ८.८ रत्तीकी गोलियां बना लें ।
अनुपान -- शहदका शर्बत ।
इनमें से १-१ गोली प्रातः सायं सेवन करसे पक्षाघात रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
(६१०४) रसादिगुटी (१) ( यो. र. इ. नि. र. । तृष्णा, वृ. यो. त । त. ८४ ) रसरजतमु पढीयस यो
वद सरोरुहमध्य दधाति ।
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स जयति तृषितस्तृषां मनुष्यो ganafie त्रिमार्गगाम्भः ॥ शुद्ध पारद और शुद्ध चांदीके चूर्ण या वरकों को एकत्र घोट कर गोली बनावें ।
इसे मुखमें रखने से तृषा नष्ट होती है । (६१०५) रसादिगुदी (२) ( ट . नि. र. । स्पर्शवाता. ) अष्ट भागो रसः शुद्धो विषतिन्दोर्दशैव तु । गन्धकस्य दशद्वौ त्रिकटुत्रिफलयोस्त्रयः ॥ वह्निचित्रकमुस्तानां वचाश्वगन्धयोरपि । रेणुकाविषकुष्ठानां पिप्पलीमूलनागयोः ॥ एकैस्तु भवेद्भाग इति ग्राह्याः क्रमेण च । गुडश्चतुर्विंशतिः स्याद्वटिका बदराकृतिः ॥ क्रमेण वानुसेवेत स्पर्शवातापनुत्तये ॥
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शुद्ध पारद ८ भाग, शुद्ध कुचला १० भाग, शुद्ध गन्धक १२ भाग; सोंठ, मिर्च और पीपल १ - १ भाग, हर्र, बहेड़ा, आमला १–१ भाग, चीता २ भाग तथा नागरमाथा, बच, असगन्ध, रेणुका, शुद्ध बछनाग, कूठ, पीपलामूल और सीसाभस्म १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियों का चूर्ण मिलाकर अन्तमें २४ भाग गुड़ मिलावें और बेरके समान गोलियां बना लें ।
इनके सेवन से स्पर्शवातका नाश होता है । (६१०६) रसादिगुटा (३) (वै. र. ; वृ. नि. र. | दाह. ; र. रा. सु. ; यो. र. । दाह. ; वृ. यो. त. । त. ८७ ) रसबलिघनसारचन्दनानां सनलदसे व्यपयोदजीवनानाम् ।