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रसप्रकरणम् ]
सम्मर्थ यामयुगलं च वनोपलाभिforget मृदुलानि च पञ्च पञ्च । पञ्चामृतं रसविभुं भिषजा प्रयुज्य गुञ्जाचतुष्टयमितं चपलारजश्च ॥ पात्रे निधाय चिरतपयस्विनीनां
दुग्धेन च प्रपिवतः खलु चाल्पभोक्तुः । जीर्णज्वरः क्षयमियादथ सर्वरोगाः
स्वयानुपानकलिताश्च शमं प्रयान्ति ।।
चतुर्थी भागः
मोती भस्म ८ भाग, मूंगा भस्म ४ भाग, हिरनखुरी बंग (रांग) की भस्म २ भाग तथा शंख और सीपकी भस्म १ - १ भाग लेकर सबको एकत्र घोट कर २ पहर ईखके रस में खरल करके गोला बनावें और उसे सुखा कर शरावसम्पुट में बन्द करके लघुपुटमें फूंकें । इसी प्रकार ईखके रस गाय दूध तथा विदारीकन्द, घृतकुमारी, शतावर, तुलसी (या संभालु ) और हंस पदी (लाल लञ्जालू ) के रसमें खरल करके पांच पांच पुट दें।
(५६०९) मुक्ताभस्मयोग ः (१) ( वै. र. । रक्तातिसा. ; वृ. नि. र. । त्रिदोष. अति.) मुक्ताभस्मेतिनामेदं दोषं दृष्ट्वा प्रकल्पयेत् । गुञ्जार्धमेकगु वा कर्पूरेण सुवासितम् || जातीफलादिसंयुक्तं रहस्यं परममतम् ॥
दोष विवेचना करके एक या आधी रत्ती मोतीकी भस्ममें जरासा कपूर मिलाकर उसे जाय
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फल इत्यादि ग्राही औषधोंके साथ देनेसे अतिसार होता है ।
यह एक गुप्त प्रयोग है ।
(५६१०) मुक्ताभस्मयोगः (२) (र. चं. । हिक्का . ) कटुकागैरिकाभ्यां च मुक्ताभस्म तथैव च । बीजपूरस्य तोयेन ताम्रं तद्वत्समाक्षिकम् ॥
कुटकी और गेरुका चूर्ण तथा मोती भस्म समान भाग मिला कर ( २ - ३ रत्ती मात्रानुसार ) बिजौरे के रसके साथ देनेसे अथवा शहद के साथ ताम्र भस्म चटाने से हिचकी नष्ट हो जाती है। 1
(५६११) मुखरोगहरोरसः
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(भै. र. ; रसे. सा. सं.; २. रा. सु । मुखरोगा : रसे. चि. म. । अ. ९. ) रसगन्धौ समौ ताभ्यां द्विगुणश्च शिलाजतु । गोमूत्रेण विमग्रथ सप्तधार्केद्रवेण च ॥ जातीनिम्बमहाराष्ट्रीरसैः सिध्यति पाकहा । कामयुतो हन्ति मुखपाकं सुदारुणम् ॥
४ रसी यह रस पीपल के चूर्ण में मिलाकर
बहुत दिनोंकी व्याही हुई गायके दूधके साथ सेवन चतुर्गु घृतं वक्त्रे सो हन्ति वढी गदान् ।
करनेसे और स्वल्पाहार करनेसे जीर्ण ज्वर और क्षयादि रोग नष्ट होते हैं ।
महाराष्ट्रयाश्च कल्केन मुखञ्च प्रतिसारयेत् ॥ Error सेवनाच्चापि वटी हन्ति मुखामयान् ॥
शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १ - १ भाग तथा शुद्ध शिलाजीत ४ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें शिलाजीत मिला कर उसे गोमूत्र, आकके पत्तोंके रस ( पाठान्तर के अनुसार अद्रक रस ), चमेली और नीम के पत्तों के रस तथा महाराष्ट्री (जल पीपल) के रसकी पृथक् १ सप्तधाद्रवेण चेति पाठान्तरम् ।
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