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१९६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
मकारादि एक द्वन्द्वजञ्चैव चिरकालसमुद्भवम् । । पञ्चगुआमितं खादेदाकस्य रसेन वा । एकाहिकं द्वाहिकश्च त्रिदोषप्रभवं ज्वरम् ॥ _ महाज्वराङ्कुशो नाम सर्वज्वरनिकृन्तनः ॥ चातुर्थकं तथात्युग्रं जलदोषसमुद्भवम् । एकाहिकं द्वाहिकं च तृतीयकं चतुर्थको। सर्वान् ज्वरान्निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा| अन्तर्वेगं धातुगं च विषमं च नियच्छति ॥ नातः परं किश्चिदस्ति ज्वरनाशाय भेषजम् । शुद्ध ताम्र पत्र और शुद्ध हरताल १-१ भाग महाज्वराङ्कुशो नाम रसोऽयं मुनिभाषितः॥ तथा भिलावे २ भाग ले कर हरतालको नीबूके शुद्ध पारद, शु गन्धक, ताम्र भस्म, शुद्ध
रस ( या कांजी ) में घोट कर ताम्र पत्रों पर लेप
करदें और फिर ऊपरे नीचे भिलावे रख कर उन हिंगुल, हरताल भस्म, लोह भस्म, बंग भस्म, सोना
पत्रोंको शरावसम्पुट में बन्द करके उसके ऊपर मक्खी भस्म. शुद्ध खपरिया, मनसिल, अभ्रक भस्म, गेरु, सुहागेकी खील, स्वर्ण भस्म और चांदी
कपरमिट्टी कर दें; एवं गजपुट में फूंक दें । सम्पुटके
स्वांग-शीतल होने पर उसमेंसे ताम्रको निकाल भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके
कर उसे स्नुही ( सेंड-थोहर ) के दूधमें घोट कर पृथक् पृथक् ३-३ दिन जम्बीरी नीबू , तुलसी,
| टिकिया बनावें और उन्हें सुखा कर सम्पुट में बन्द चीतामूल, भांग और तिन्तड़ीक के स्वरस या काथमें धूप में धोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना
करें । इस पुटको १ बार भूधर-पुटमेंx पका कर
स्वांग शीतल होने पर औषधको निकाल कर पीस कर छायामें सुखा लें।
कर सुरक्षित रक्खें । ये गोलियां जठराग्निको अत्यन्त तीब्र करती
इसे ५ रत्ती मात्रानुसार अदरकके रसके साथ और समस्त ज्वरोंको नष्ट कर देती हैं।
सेवन करनेसे एकाहिक, द्वाहिक, तृतीयक, चातुइनके सेवनसे एक दोपज, द्विदोषज और र्थिक, अन्तर्वेग, धातुगत आर विषम-ज्वर आदि सन्निपातज जीर्ण ज्वर, एकाहिक, द्वाहिक, चातु- समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं । थिक और अत्युग्र जलदोष-जनित ज्वर अत्यन्त शीव नष्ट हो जाते हैं।
(५५४४) महाज्वराङ्कुशः (४) (५५४३) महाज्वराङ्कुशः (३)
( र. रा. सु. । ज्वर.)
पलैकं हरितालं च स्नुहीक्षीरेण भावयेत् । (र. रा. सु. । ज्वरा.)
भावना त्रि प्रदातव्यं ततो मुद्रां प्रकल्पयेत् ।। ताम्रपत्राणि तालं च सममम्लेन मईयेत् ।।
भूधर पुट- भूमिमें गजपुटके समान एक गढ़ा तयोस्तुल्यं च भल्लातमधोज़ तच्च दापयेत् ॥
खोद कर उसके भीतर एक अन्य छोटासा गढ़ा खोदें शरावसम्पुटे दग्धं स्वाङ्गशीतं विचूर्णयेत् ।। और उसमें सम्पुट रख कर उसे मिट्टीसे ढक दें तथा ब? वज्रीक्षीरेण सम्मर्य भूधरे तत्पुटेत् पुनः॥ । गढ़ेमें उपले भरकर अग्नि लगादें ।
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