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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
__ (५७८६) योगसारामृतः ___ शतावर, नागबला, विधारामूल, भुई आमला, ( ग. नि.; व. से.; च. द. । वातव्या.; वृ. मा.;
| पुनर्नवा ( बिसखपरा ), गिलोय, पीपल, असगन्ध
और गोखरुका चूर्ण १०-१० पल ( ५०-५० र. र.; वृ. नि. र. । वातरक्त.)
तोले ) तथा मिश्री सबसे आधी लेकर सबको शतावरी नागबला वृद्धदारुकमुच्चटा। एकत्र मिलावें । तदनन्तर एक दृढ़ मृत्पात्रमें यह पुनर्नवाऽमृता कृष्णा वाजिगन्धा त्रिकण्टकः ॥ चूर्ण और ४ सेर शहद तथा २ सेर घी एवं ५ पृथग्दशपलान्येषां सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।। तोले त्रिसुगन्ध ( दालचीनी, इलायची, तेजपात ) तदर्धशर्करायुक्तं चूर्ण संमर्दयेबुधः ॥ का चूर्ण मिला कर सबको अच्छी तरह आलोडित स्थापयेत्सुदृढे भाण्डे मध्वार्धाढकसंयुतम् । करके सुरक्षित रक्खें । घृतपस्थेन चालोड्य त्रिमुगन्धिपलेन च ।। इसे अग्नि बलोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे तं खादेदिष्टचेष्टान्नो यथावद्भिवलं नरः।। वातरक्त, क्षय, कुष्ट, रक्तपित्त जनित कृशता, वातज वातरक्तं क्षयं कुष्ठं कार्य पित्तास्रसम्भवम् ॥ पित्तज और कफज अनेक रोग तथा बलि पलितका वातपित्तकफोत्थांश्च रोगानन्यांश्च तद्विधान् । नाश हो कर शरीरको कान्ति बढ़ती है। हत्वा करोति पुरुष वलीपलितवर्जितम् ॥ परहेज---दिनको सोना, अग्नि तापना, व्यायोगसारामृतो नाम लक्ष्मीकान्तिविवर्धनः। याम, मैथुन, कटूष्ण और भारी आहार, अभिष्यन्दि दिवास्वमाग्निसन्तापं व्यायाम मैथुनं तथा ॥ पदार्थ तथा लवण और अम्ल पदार्थोसे परहेज़ कटूष्णगुवभिष्यन्दिलवणाम्लानि वर्जयेत् ॥ । करना चाहिए ।
इति यकाराबवलेह-प्रकरणम्
अथ यकारादिघृतप्रकरणम् (५७८७) यवक्षारादिघृतम् आमला ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र ( ग. नि. । स्वरभङ्गा. १२)
पीस लें। पीतं धृतं हन्त्यनिलं सिद्धं मार्कवजे रसे। । २ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर भगरेका यवक्षाराजमोदाभ्यां चित्रकामलकेषु च ॥
| रस मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी जल
जाए तो घृतको छान लें। स्वरोपघातेऽनिलजे भक्तोपरि घृतं पिबेत् ॥ कला--जवाखार, अजमोद, चीता और
यह घृत वातज स्वर भंगको नष्ट करता है।
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