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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(५७८८) यवादिघृतम् (१)
जौ, बेरका गदा और कुल्थीके कल्क तथा
| पञ्चमूलके कपाय और सुरा एवं सौबीरक कांजीके (र. र. । प्रसूति.)
साथ घृत सिद्ध कर लें। यवकोलकुलत्थानां शालिमूलं तथैव च ।
यह घृत उदर रोग नाशक है। क्वाथयेदप्रमत्तश्च सुपूते सलिलाढके ॥
(५७९०) यवादिघृतम् (३) तत्पादावस्थितं क्वाथं सर्पिर्युक्तं सजीरकम् ।
( वृ. नि. र. । अश्मरी.) पक्वं घृताक्षमात्रेण सैन्धवेन समायुतम् ॥
यवकोलकुलित्थानि कतकस्य फलानि च । एतेनैव च यूषेण चाश्नीयाच्छालिषष्टिकम् ।
' चतुर्थाशकषायेण पाच्यमेतच्छृतं घृतम् ॥ सूतिकोपद्रवं हन्ति भुक्तमात्रान संशयः ॥
____ जौ, बेरका गूदा, कुलथी और निर्मलीके बीज जौ, बेरका गूदा, कुलथी और शाली धानकी
| १-१ सेर लेकर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर जड समान भाग मिश्रित १ सेर लेकर सबको कूट पानी में पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रहे तो कर ८ सेर पानीमें पकावें । जब २ सेर काथ शेष
छान लें। रह जाय तो छान लें।
___ इसमें २ सेर धी मिला कर पकावें । जब पानी अब इस काथमें आधा सेर घी और ५ तोले
जल जाए तो धीको छान लें। जी रका कल्क तथा १। तोला सेंधा नमक मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो
यह घृत पथरीको नष्ट करता है। घीको छान लें।
(५७९१) यष्टीमधुकादिघृतम् इसे शाली अथवा साठी चावलोंके भातमें (हा. सं. । स्था. ३ कर्ण रोगा. ७४ अ.) डाल कर वह भात उपरोक्त द्रव्योंके यूषके साथ यष्टीमधुकुष्ठमरिष्टपत्रं सेवन करना चाहिये ।
निशाविशालासुमनः प्रवाला। इसके सेवनसे सूतिका रोग तुरन्त शान्त हो |
विपाचितं कर्णभवे च शूले जाता है।
सपैत्तिके वा घृतमेव शस्तम् ॥
कल्क--मुलैठी, कूठ, नीमके पत्ते, हल्दी, (५७८९) यवादिघृतम् (२)
इन्द्रायणकी जड़ और जाती (जाई) के पत्ते २॥(च. सं. । चि. अ. १८.)
२॥ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें । यवकोलकुलत्थानां पञ्चमूलरसेन च ।। काथ-उपरोक्त कल्क वाली ओषधियां आधा मुराप्तौवीरकाभ्यां च सिद्धं वापि पिवेद् घृतम्।।' आधा सेर (मिलित ३ सेर ) लेकर सबको कूट
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