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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [वकारादि ___ (६९०९) वङ्गशोधनम् (१) मेहाश्मरीविद्रधिमुष्करोगा(र. र. स. । पू. अ. ५ ; र. रा. सु.) ___ मागोऽपि कुर्यात्कथितान्विकारान् ॥ | वङ्गनागौ प्रतप्तौ च गलितौ तौ निषेचयेत् । खुरकं मिश्रकं चेति द्विविधं वङ्गमुच्यते । | त्रिधात्रिधा विशुद्धिः स्याद्रविदुग्वेऽपि च त्रिधा। खुरं तत्र गुणः श्रेष्ठं मिश्रकं न हितं मतम् ॥ ___अशुद्ध वंगकी भस्म सेवन करनेसे आक्षेपक, धवलं मृदुलं स्निग्धं तद्रावं सगौरवम् । कम्प, किलास, गुल्म, कुष्ठ, शूल, वातव्याधि, निःशब्दं खुरवङ्गं स्यान्मिश्रकं श्यामशुभ्रकम् ॥ शोथ, पाण्डु, प्रमेह, भगन्दर, रक्त विकार, विष द्रावयित्वा निशायुक्ते क्षिप्ते निर्गुण्डिकारसे । समान उपद्रव, क्षय, कफ ज्वर, अश्मरि, विद्रधि विशुद्धयति त्रिवारेण खुरवङ्गं न संशयः ॥ और मुष्क ( अण्डकोष ) सम्बन्धी रोग उत्पन्न होते वंग दो प्रकारको होती है; एक खुरक हैं। अशुद्ध नाग भस्मसे भी यही रोग उत्पन्न होते ( हिरनखुरी) और दूसरी मिश्रक । इन दोनोंमें | हैं अतः वंग अथवा नागको शुद्ध किये बिना इनकी खुरवंग श्रेष्ठ होती है और मिश्रक त्याज्य । भस्म कदापि न बनानी चाहिये । खुरवंग रंगमें सफेद, कोमल, स्निग्ध, जल्दी वंग और नागको तपा तपा कर ( गला गला गल जाने वाली, भारी और शब्द रहित होती है। कर ) ( तेल, तक्र, गोमूत्र, कांजी और कुलथीके मिश्रक वंगका रंग स्याही लिये हुवे सफेद | काथमें ३-३ बार बुझानेके पश्चात् ) ३ बार होता है। | आकके दूधमें बुझानेसे वह शुद्ध हो जाती है। खुरवङ्गको (तैल, तक्रादिमें बुझानेके प (६९११) वङ्गावलेहः ३चात् ) गला, गला कर हल्दीका चूर्ण मिले | ( रसे. सा. सं. । प्रमेहा. ; रसे. चि. म. | अ. ९; हुवे संभालके रसमें ३ बार बुझानेसे वह शुद्ध हो | र. का. धे. ; र. रा. सु. ; धन्व. । प्रमेहा.) जाती है। वङ्गभस्म द्विवल्लञ्च लेहयेन्मधुना सह । (६९१०) वङ्गशोधनम् (२) ततो गुडसमं गन्धं भक्षयेत्कर्षमात्रकम् ॥ ( भा. प्र. । पू. ख १) गुडूचीसत्त्वमथ वा शर्करासहितं तथा। वङ्गं विधत्ते खलुशुद्धिहीन सर्वमेहहरो ज्ञेयो वङ्गावलेह उत्तमः ॥ माक्षेपकम्पौ च किलासगुल्मौ । ६ रत्ती ( आजकल २ रत्ती ) वंग भरमको कुष्ठानि शूलं किल वातशोथं शहदके साथ चाट कर १। तोला ( व्य. मात्रा २ पाण्डं प्रमेहश्च भगन्दरश्च ॥ रत्ती ) शुद्ध गंधकको गुड़में मिला कर खाने या विषोपमं रक्तविकारवृन्दं गिलोयके सतको खांडमें मिला कर खानेसे समस्त क्षयश्च कृच्छ्राणि कफज्वरश्च । । प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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