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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(६०६९) रसपोटली
____ अब उसे पानके रसमें डोल कर धूपमें रक्खें (र. प्र. सु. । अ. ३ )
| और जब वह शुष्क हो जाए तो उसमें पुनः
पानका रस डाल दें। इसी प्रकार सात भावना स शुकपिच्छ समोऽपि हि पारदो
पानके रसकी और सात धतूरेके रसकी दें। __ भवति खल्वतेन च कुट्टितः।
तदनन्तर भूमिमें एक १२ अंगुल गहरा दृढतरामुपकल्पय पर्पटी
और १ अनि ( लगभग ६ इंच) चौड़ा गढ़ा वसनबद्धकृतामपि पोटलीम् ॥
खोदकर उसमें आधी दूर तक रेत भर दें और उस उपरि नागरसेन विलेपितां
पर उपरोक्त पोटली रख कर गढ़ेको रेतसे भर दें, रविकरेण सदा परिशोषिताम् ।
और फिर उस पर उपले रख कर अग्नि लगा दें। कनकपत्ररसेन च सप्तधात
यह अग्नि १२ पहर तक रहनी चाहिये । इसके प्यवनिगततले विनिवेशय ।।
पश्चात् गढेकी रेतीके स्वांग-शीतल हो जाने पर अवनिगर्तमरनिकमायतं
उसमेंसे पोटलीको निकाल लें। द्विदशमङ्गुलमेव मुनिम्नकम् ।
___ यह पोटली बलकारक और सुख सिद्धि सिकतया परिपूर्य तदर्धक
दायक है। तदनु तत्र निवेशय पोटलीम् ॥ उपरि वालुकया परिपूर्यत
मात्रा--१-२ रत्तो। च्छगणकैश्च पुटं परिदीयताम् । (६०७०) रसभस्मयोगः (१) द्विदशयाममथाग्निमहो कुरु
(वृ. नि. र. । अश्मरि.) भवति तेन महारसपोटली ॥ इति मया कथिता रसपोटली
विदारीगोक्षुरुयष्टिकेशरं च समं भवेत् । बलकरा सुकरा सुखसिद्धिदा ॥
तं कषायं पिबेत्क्षौद्रे रसभस्मयुतं पुनः ॥
| मूत्रकृच्छाद्विमुच्येत साध्यासाध्यान्न संशयः ॥ शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर दोनोंको एकत्र खरल करके कज्जली बनावें।
विदारीकन्द, गोखरु, मुलैठी और नागकेसर तदनन्तर उसे प्रतलिप्त लोह पात्रमें मन्दाग्नि पर । १-१ तोला ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ पिघला कर गायके गोबर पर बिछे हुवे केलेके पत्ते तोले पानीमें पकावें और ८ तोले पानी शेष रहने पर फैला दें और फिर उस पर दूसरा कदली–पत्र | ढक कर उसे गायके गोबरसे दबा दें, एवं थोड़ी इस काथमें शहद मिलाकर उसके साथ पारददेर पश्चात् पत्तों के बीचसे औषधको निकाल लें। भस्म सेवन करनेसे साध्य अथवा असाध्य हर प्रकातथा उसे कपड़ेमें बांध कर पोटली बना लें। । रका मूत्रकृच्छ नष्ट होता है ।
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