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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
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(५६८१) मेहारिरसः (३) कर दें। और इसे ३ दिन तक सूखने दें। (र. र. स. । अ. १७)
फिर शीशीको लवण यन्त्रमें रख कर ४ पहरकी
अग्नि दें। तदनन्तर जब शीशी स्वांग शीतल हो सूतं बाहुमितं बलिं शशि
जाय तो उसे तोड़ कर उसमें से रस निकाल लें। मितं सम्मध तत्कज्जली
__ अब २ भाग यह रेस और १-१ भाग कृत्वा कृष्णहिरण्यतोय
अभ्रक तथा लोह भस्म ले कर सबको एकत्र सहितां सम्मधे घस्रं पुनः ।
घोट लें। कूप्यां कालिकामभ्रक
___ इसे मिश्री, गुडूची सत्व और शहदके साथ सुपिहितां मृत्स्नांशुकैः सप्तभिः
अथवा पीपलके चूर्ण और शहदके साथ सेवन सम्वेष्टय त्रिदिनं विशोष्य
करनेसे समस्त प्रमेह, पाण्डु, कामला, हलीमक, लवणापूर्णे क्षिपेद्भाण्डके ॥ समस्त पित्तज रोग और प्रदर नष्ट होते हैं। दग्ध्वा यामचतुष्टये च
मात्रा-३ रत्ती शिशिरां भित्वा च तां कूपिकां
(५६८२) मोरेश्वररसः तं सूतं द्विलवं लवं च गगनं लोहं लवं मर्दयेत् ।
(वृ. नि. र. । सन्निपात.) सिद्धो वल्लमितः सिता च
शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं दिनैकं चाकद्रवैः । मधुना वत्सादनीसवतो
मर्दयित्वा च तं गोलं गोलार्धे ताम्रसम्पुटे ॥ नोचेक्षौद्रकणायुतश्च
लिप्त्वा निरुए तत्सन्धि मृन्मूषायां निरुध्य च। तरसा सर्वप्रमेहाअयेत् ॥ रात्रौ गजपुटे पाच्यं प्रातरादाय चूर्णयेत् ॥ रोगाधीश्वरपाण्डुकामल
गुजैकं नागरसमं सघृतं सन्निपातनुत् । हरिद्राभत्वपित्तोद्भवान्सींश्च अनुपानं पिवेत्पश्चात्तप्तं वारिपलद्वयम् ॥ पदरामयान्विजयते मेहारिनामा रसः॥ दध्यन्नं दापयेत्पथ्यं तृपायां शीतलं जलम् ।
शुद्ध पारद २ भाग और शुद्ध गन्धक १ | कृशं च कुरुते स्थूलं नरं मोरेश्वरो रसः॥ भाग ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और उसे १ । । शुद्ध पारा १ भाग और शुद्ध गन्धक २ भाग दिन काले धतूरेके रसमें घोट कर ( सुखाकर ) ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और उसे १ दिन आतशी शीशीमें भर दें तथा उसके मुख पर अदरकके रसमें घोट कर गोला बनावें तथा उसे १॥ अभ्रकका पत्र रख कर शीशी पर सात कपड़ मिट्टी | भाग शुद्ध ताम्रके सम्पुट में बन्द करके सन्धिको
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