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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
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एतैरक्षसमें कल्कैघृतप्रस्थं चतुर्गुणे ।
२ सेर धीमें उपरोक्त कल्क, ८ सेर दूध क्षीरे च द्विगुणे नोरे नप्त्वा तदोमयाग्निना॥ और ४ सेर पानी मिलाकर कण्डोंकी अग्निपर प्राप्ते च तप्तसंयुक्तं पचेत् खादेच नित्यशः। पकावें जब दूध और पानी जल जाएं तो घृतको सर्पिरेतन्नरो नारी पीत्वा कर्ष वृषायते ॥ छानकर सुरक्षित रक्खें । या च वन्ध्या भवेन्नारी या च कन्या प्रसूयते ।। यह घृत स्त्री, पुरुषों में वीर्य और कामशक्तिकी या चैव स्थिरगर्भा स्यात यावा जनयते मृतम् ।। | वृद्धि करता है। अल्पायुषं वा जनयेत् या वा शूलान्वितं पुनः।
जिस स्त्रीको सन्तान न होती हो अथवा इदृशी जनयेत्पुत्रं तस्या दोषो व्यपोहति ॥ जिसके कन्या ही कन्या उत्पन्न होती हो, जिसको एतत्कल्याणकं नामघृतं शम्भुप्रकीर्तितम् ।।
| गर्भ बहुत दिनों तक उदरमें ही स्थित रहता हो जीवद्वत्सैकवर्णाया घृतं तस्या तु गृह्यते ॥
(ठीक समय बीत जाने पर भी प्रसव न होता हो)
अथवा जिसके अल्पायु, रुग्ण या मृतसन्तान कल्क-सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, |
उत्पन्न होती हो उसे यह घृत सेवन कराने से ये आमला, नागरमोथा, बायबिडंग, इलायची, हल्दी,
समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं। दारुहल्दी, दोनों प्रकारकी सारिवा, निसोत, दन्ती- | मूल, जवासा, पद्माख, कौंचके बीज, मजीठ, मुलैठी,
इस प्रयोगमें एक रंग वाली ऐसी गायका कूठ, ब्राह्मी, तालीसपत्र, बेलगिररो, जीवक, ऋषभक,
घृत लेना चाहिए जिसका बच्चा जीवित हो । मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि, | (५२३१) महाखादिरं घृतम् वृद्धि, जीवनीयगण, चन्दन, लाल चन्दन, मुनक्का, | (वृ. यो. त. । त. १२०, च. द.; व. से.; महुवेके फूल, खरैटी, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, मुद्गपर्णी | यो. र. । कुष्ठ.; वृ. नि. र. । त्वग्दोष; च. सं. । माषपर्णी, देवदारु, कचूर, पाठा, रेणुका, सफेद चि. अ. ७ कुष्ठ.) जीरा, काला जीरा, असगन्ध, अजमोद, कुटकी, | अनारदाना, इन्द्रायणकी जड़, शङ्खपुष्पी, कटेली खदिरस्य तुलाः पश्च शिंशपासनयोस्तुले । बड़ी कटेली, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नाग- |
तुलार्धाः सर्व एवैते करजारिष्टवेतसाः ॥ केशर, बंसलोचन, खस, सिरसकी छाल, सुगन्धबाला. पर्पटः कुटजश्चैव वृषः कृमिहरस्तथा। फूलप्रियंगु, चमेली के फूल, जावित्री, पोखरमूल, हरिद्रे कृतमालश्च गुडूची त्रिफला त्रित् ।। बिदारीकन्द, केलेको जड़, मूसली, हस्तिपर्णी, सतपर्णश्च संक्षुण्णो दशद्रोणे तु वारिणः । अतीस, खी रेके बीज, रेणुका, जटामांसी और अष्टभागावशेषं तु कषायमवतारयेत् ॥ एलवालुक; प्रत्येक ११-११ तोला लेकर सबको धात्रीरसं च तुल्यांशं सर्पिषश्वाऽऽढकं पचेत् । एकत्र पीस लें।
| महातिक्तककल्कैस्तु यथोक्तैः पलसंमितैः ॥
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