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भारत-भैषज्य-स्त्नाकरः
[लकारादि
वातोत्थान् पैत्तिकांश्चैव नास्त्यत्र नियमः मिलाकर सबको पानके रसमें घोट कर ३-३
क्वचित् ॥ रत्तीकी गोलियां बना लें। कुष्ठमष्टादशाख्यश्च प्रमेहान् विंशतिं तथा। इनके सेवनसे भयंकर सन्निपात, वातज नाडीव्रणं व्रण घोरं गुदामयभगन्दरम् ।। और पैत्तिक रोग, अठारह प्रकारके कुष्ठ, बीस श्लीपदं कफवातोत्थं रक्तमांसाश्रितश्च यत् ।
प्रकारके प्रमेह, नाड़ी ब्रग, दुष्ट व्रण, अर्श, भगमेदोगतं धातुगतं चिरज कुलसम्भवम् ।। न्दर; तथा रक्तगत, मांसगत, मेदोगत, धातु गलशोथमन्त्रद्धिमतीसारं सुदारुणम् । गत, पुराना और वंशानुगत कफवातज श्लीपद; आमवातं सर्वरूपं जिहस्तम्भं गलग्रहम् ।।
गलशोथ, अन्त्रवृद्धि, दारुण अतिसार, आमवात, उदरं कर्णनासाशिमुखवैकृत्यमेव च ।
जिह्वास्तम्भ, गलग्रह, उदररोग, कर्ण विकार, नासा कासपीनसयक्ष्मास्थिौल्यदौर्गन्ध्यनाशनः॥ विकृति, मुखविकृति खांसी, पीनस, राजयक्ष्मा, सर्वशूलं शिरःशूलं स्त्रीणां गदनिसूदनम् । स्थूलता, दुर्गन्धि, समस्त प्रकारके शूल, शिरपीड़ा बटिकां प्रातरेकैकां खादेन्नित्यं यथावलम् ॥
और स्त्रीरोगांका नाश होता है । वारितकसुरासीधुसेवनाकामरूपधृक् ॥
इस औषधकी १-१ गोली प्रति दिन प्रातः वृद्धोऽपि तरुणस्पर्धी न च शुक्रस्य संक्षयः । काल पानी, तक्र, सुरा या सीधुके साथ खानी न च लिङ्गस्य शैथिल्यं न केशा यान्ति चाहिये।
पक्वताम् ॥
- इसके सेवनसे वृद्ध पुरुष कामदेव सदृश नित्यं स्त्रीणां शतं गच्छेन्मत्तवारणविक्रमः । | रूपवान और तरुणस्पी हो जाता है। द्विलक्षयोजनी दृष्टिर्जायते पौष्टिकः परः ॥
इसके प्रभावसे न तो शुक्रक्षय होता है, न प्रोक्तः प्रयोगराजोऽयं नारदेन महात्मना।
लिङ्गशैथिल्य और न ही केश सफेद होते हैं । रसो लक्ष्मीविलासस्तु वासुदेवे जगत्पती॥
इस रसके सेवनसे दृष्टि शक्ति अत्यधिक बढ़ अभ्यासाद् यस्य भगवान् लक्षनारीषु जाती है और कामशक्ति इतनी प्रबल हो जाती है
वल्लभः ॥
कि मनुष्य बहुतसी स्त्रियांसे मदमत्त हाथीके समान कृष्णाभ्रक भस्म ५ तोले; शुद्ध गन्धक; शुद्ध
समागम कर सकता है। पारद, २॥-२॥ तोले, कपूर, जावत्री, जायफल, भै. र.; रसे. सा. सं. आदि कई ग्रंथोंमें विधारेके बीज, धतूरेके बीज, भांगके बीज, विदा- | वातरोगाधिकार में लक्ष्मी विलासका एक अन्य पाठ रीकन्द, शतावर, नागबला (गंगेरन), अतिबला भी है जिसमें अष्टमांश ( सम्पूर्ण औषधेका अष्ट(कंधी), गोखरुके फल और हिज्जल बीज ११-१।। मांश अथवा १ भागका अष्टमांश-१५ रत्ती ) तोला लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें स्वर्ण भरम अधिक लिखी है। शेष प्रयोग इसके और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका बारीक चूर्ण समान ही है।
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