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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०४ भारत-भैषज्य-स्त्नाकरः [लकारादि वातोत्थान् पैत्तिकांश्चैव नास्त्यत्र नियमः मिलाकर सबको पानके रसमें घोट कर ३-३ क्वचित् ॥ रत्तीकी गोलियां बना लें। कुष्ठमष्टादशाख्यश्च प्रमेहान् विंशतिं तथा। इनके सेवनसे भयंकर सन्निपात, वातज नाडीव्रणं व्रण घोरं गुदामयभगन्दरम् ।। और पैत्तिक रोग, अठारह प्रकारके कुष्ठ, बीस श्लीपदं कफवातोत्थं रक्तमांसाश्रितश्च यत् । प्रकारके प्रमेह, नाड़ी ब्रग, दुष्ट व्रण, अर्श, भगमेदोगतं धातुगतं चिरज कुलसम्भवम् ।। न्दर; तथा रक्तगत, मांसगत, मेदोगत, धातु गलशोथमन्त्रद्धिमतीसारं सुदारुणम् । गत, पुराना और वंशानुगत कफवातज श्लीपद; आमवातं सर्वरूपं जिहस्तम्भं गलग्रहम् ।। गलशोथ, अन्त्रवृद्धि, दारुण अतिसार, आमवात, उदरं कर्णनासाशिमुखवैकृत्यमेव च । जिह्वास्तम्भ, गलग्रह, उदररोग, कर्ण विकार, नासा कासपीनसयक्ष्मास्थिौल्यदौर्गन्ध्यनाशनः॥ विकृति, मुखविकृति खांसी, पीनस, राजयक्ष्मा, सर्वशूलं शिरःशूलं स्त्रीणां गदनिसूदनम् । स्थूलता, दुर्गन्धि, समस्त प्रकारके शूल, शिरपीड़ा बटिकां प्रातरेकैकां खादेन्नित्यं यथावलम् ॥ और स्त्रीरोगांका नाश होता है । वारितकसुरासीधुसेवनाकामरूपधृक् ॥ इस औषधकी १-१ गोली प्रति दिन प्रातः वृद्धोऽपि तरुणस्पर्धी न च शुक्रस्य संक्षयः । काल पानी, तक्र, सुरा या सीधुके साथ खानी न च लिङ्गस्य शैथिल्यं न केशा यान्ति चाहिये। पक्वताम् ॥ - इसके सेवनसे वृद्ध पुरुष कामदेव सदृश नित्यं स्त्रीणां शतं गच्छेन्मत्तवारणविक्रमः । | रूपवान और तरुणस्पी हो जाता है। द्विलक्षयोजनी दृष्टिर्जायते पौष्टिकः परः ॥ इसके प्रभावसे न तो शुक्रक्षय होता है, न प्रोक्तः प्रयोगराजोऽयं नारदेन महात्मना। लिङ्गशैथिल्य और न ही केश सफेद होते हैं । रसो लक्ष्मीविलासस्तु वासुदेवे जगत्पती॥ इस रसके सेवनसे दृष्टि शक्ति अत्यधिक बढ़ अभ्यासाद् यस्य भगवान् लक्षनारीषु जाती है और कामशक्ति इतनी प्रबल हो जाती है वल्लभः ॥ कि मनुष्य बहुतसी स्त्रियांसे मदमत्त हाथीके समान कृष्णाभ्रक भस्म ५ तोले; शुद्ध गन्धक; शुद्ध समागम कर सकता है। पारद, २॥-२॥ तोले, कपूर, जावत्री, जायफल, भै. र.; रसे. सा. सं. आदि कई ग्रंथोंमें विधारेके बीज, धतूरेके बीज, भांगके बीज, विदा- | वातरोगाधिकार में लक्ष्मी विलासका एक अन्य पाठ रीकन्द, शतावर, नागबला (गंगेरन), अतिबला भी है जिसमें अष्टमांश ( सम्पूर्ण औषधेका अष्ट(कंधी), गोखरुके फल और हिज्जल बीज ११-१।। मांश अथवा १ भागका अष्टमांश-१५ रत्ती ) तोला लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें स्वर्ण भरम अधिक लिखी है। शेष प्रयोग इसके और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका बारीक चूर्ण समान ही है। For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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