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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६४९७) वरुणादिक्वाथः (४) लाल चन्दन, पुन्नाग ( सुल्तानचम्पा ), (व से. । अश्मरी. )
पद्माक, खस, मुलैठी, मजीठ, सारिवा, क्षीरकावरुणकभस्मपरिश्रुतसलिलं तच्चूर्ण यावशूक- कोली, सफेद दूर्वा और नील दूर्वा; ये दश ओष
युतम् ।। धियां वर्ण्य हैं। क्वथनीयं तत्तावद्यावच्चूर्णत्वमायाति ॥ (६५००) वर्ड मानपिप्पलीयोगः तद्गुडयुक्तं हन्यात्तदुदारामश्मरी घोराम्। (भै. र. । प्लीह. : च. द.। प्लीहा. ३८ : ग. वह्निसदनं सुकष्टमश्ममयीमश्मरी चाशु॥
नि. । सा. रसा. १ ; यो. चि. म. । अ. ७) ____बरनेकी छालकी .राखको पानीमें घोल कर कई बार छान कर स्वच्छ पानी निकालें । ( जिस
प्र. सं. ३८२८ " पिप्पली वर्द्धमानम् " प्रकार क्षार बनानेके लिये पानी तैयार करते हैं ) | देखिये । तदनन्तर उसमें बरनेकी छालका चूर्ण और जवा- (६५०१) वर्षाभ्वादिक्वाथः खार मिला कर पुनः पकावें । जब शुष्क चूर्ण हो |
(वृ. नि. र. 1 अन्तर्विद्रधि. ) जाय तो निकाल लें। इसे गुड़में मिलाकर सेवन करनेसे घोरतर, |
वर्षाभूवरुणामिभ्यां क्वाथो विद्रधिनाशनः । पत्थरके समान कठिन और पीडादायक अश्मरी | पुनर्नवा और बरनेकी जड़का काथ विद्रतथा अग्निमांद्यका नाश होता है ।
धिको नष्ट करता है। (६४९८) वरुणादिस्वेदः (६५०२) वासकादिकषायः (१) ( ग. नि. । वाता. २०)
(व. से. ; च. द. ; भै. र. । नेत्र रोगा. ; वृ. वरुणैरण्डवातारिमुण्डयः शिग्रुः शतावरी।
यो. त.।त. १३१ ; यो. त. । त. ७१) गोक्षुरः सर्षपश्चैषां स्वेदो वातगदापहः ॥
आटरूषाभयानिम्बधात्रीमुस्ताक्षकूलकैः । ___ बरनेकी छाल, दोनों प्रकारके अरण्डकी छाल, मुण्डी, सहजनेकी छाल, शतावर, गोखरु और रक्तस्रावं कर्फ हन्ति चक्षुष्यं वासकादिकम् ॥ सरसों; इनके क्वाथकी भाप लेनेसे वातव्याधि नष्ट ___ बासा, हरे, नीमको छाल, आमला, नागरहोती है।
मोथा, बहेड़ा और पटोलपत्र समान भाग ले कर (६४९९) वर्ण्यकषायदशकः
| काथ बनावें। (च. सं. । सू. अ. ४)
इसके सेवनसे नेत्रोंसे होने वाला रक्तस्राव चन्दनतुङ्गपद्मकोशीरमधुकमभिष्ठासारिवापयस्या- और कफ नष्ट होता है । यह क्वाथ नेत्रोंके लिये सितालता इति दशेमानि वर्ष्यानि भवन्ति । । विशेष हितकारी है ।
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