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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः बरनेकी छाल, त्रिफला, सेांठ और गोखरु बरनेकी जड़की छालके क्वाथमें उसीका कल्क समान भाग ले कर काथ बनावें। मिला कर पीने या सहजनेकी जड़का मन्दोष्ण - इसमें गुड़ और जवाखार मिला कर पीनेसे | क्वाथ सेवन करनेसे अश्मरी निकल जाती है । चिरकालीन वातज अश्मरी नष्ट होती है । (६४९५) वरुणादिक्वाथः (२) (६४९२) वरुणादिकषायः (३) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३५ ) ( वृ. मा. ; ग. नि. । अश्मर्य. २९; वै. र. । वरुणा वृक्षादनी चैव दशमूली शतावरी । अश्मरी ; च. द. । अश्मर्य. ३३; र. र. । अश्मय.) क्वाथपानं वातिके च मुष्कद्धौ हितावहम् ।। पिबेदरुणमूलत्वकषायं गुडसंयुतम् । बरनेकी छाल, बन्दा, दशमूल और शतावर अश्मरी पातयत्याशु बस्तिशूलविनाशनम् ॥ समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । बरनेकी जड़की छोलके क्वाथमें गुड़ मिलाकर इसके सेवनसे वातज अण्डवृद्धि नष्ट होती है। पीनेसे अश्मरी निकल जाती है तथा बस्तिशूल नष्ट (६४९६) वरुणादिक्वाथः (३) होता है। (भै. र. । गुल्मा. ; शा. सं. । ख. २ अ. २ __(६४९३) वरुणादिकषायः (४) यो. र. ; वृ. नि. र. । गुल्मा. ) (ग. नि. । विध्य. ; यो. र. ; व. से. । | वरुणो बकपुष्पश्च बिल्वापामार्गचित्रकाः । ... विद्रधि. ; वृ. यो. त. । त. ११० ) अग्निमन्थद्वयं शिग्रुद्वयश्च बृहतीद्वयम् ॥ कासीससैन्धवशिलाजतुहिङ्गचूर्ण सैरेयकत्रय मूर्वा मेषशृङ्गी किरातकः । मिश्रीकृतो वरुणवल्कलजः कषायः। अजशृङ्गी च बिम्बी च कराश्च शतावरी ॥ अभ्यन्तरोत्थितमपक्वमतिप्रमाणं वरुणादिगणक्वाथः कफमेदोहरः स्मृतः । नृणामयं जयति विद्रधिमुग्रशोथम् ॥ | हन्ति गुल्मं शिरःशूलं तथाभ्यन्तरविद्रधीन् । । बरनेकी छालके क्वाथमें कसीस, सेंधा, शिला बरनेकी छाल, अगस्तिके फूल, बेलकी छाल, जीत और हींगका चूर्ण मिला कर पीनेसे प्रवृद्ध | | चिरचिटा ( अपामार्ग), चीतामूल, दोनों प्रकारकी अपक्व अन्तर्विद्रधि नष्ट हो जाती है । अरणीकी छाल, दोनों सहेजनेकी छाल, छोटी और (६४९४) वरुणादिक्वाथः (१) बड़ी कटेली; सफेद, पीली और नीली कटसरैया, ( वृ. मा. । अश्मरी. ; ग. नि. । अश्मय. २९; मूर्वा, मेढासिंगी, चिरायता, अजशृंगी, कन्दूरी, वै. म. र. । पटल ७; च. द. । अश्मय. ३३; । करञ्जुवा और शतावर समान भाग ले कर क्वाथ व. से. ; वृ. नि. र.) | बनावें । पिषेवरुणमूलत्वक्क्याथ तत्कल्कसंयुतम् ।। इसके सेवनसे कफ, मेद, गुल्म, शिरशूल क्वाथश्च शिग्रुमूलोत्थः कदुष्णोऽश्मरिपातनः ॥ और अन्तर्विद्रधिका नाश होता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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