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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२१३
लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और । लोह भस्म ८-८ माशे; स्वर्ण भरम, ताम्र भस्म फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर बक- और कपूर प्रत्येक ४-४ माशे तथा भांग, शतावर, रीके दूधमें घोट कर ४-४ रत्तोकी गोलियां सफेद राल, लौंग, तालमखाना, विदारीकन्द, बनावें ।
मूसली, कौंचके बीज, जायफल, जावत्री, बला __ इनके सेवनसे आनाह (अफारा) और संग्रहणी (खरैटी) और नागबला (गंगेरन) प्रत्येक २-२ तथा पूर्वोक्त ( महाराज नृपति वल्लभ में कथित ) | माशे लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें रोग नष्ट होते हैं।
और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको
तालमूलीके रसमें घोट कर ४-४ रत्तीकी गोलियां (५५६६) महाराजवटी (१)
बनावें। ( भै. र.; र. चं.: रसे. सा. सं. । ज्वर.)
इन्हें प्रातःकाल शहदके साथ सेवन करनेसे रसगन्धकमभ्रश्च प्रत्येकं कर्षसम्मितम् ।।
| विषमज्वर नष्ट होता है। वृद्धदारकवङ्गश्च लौहं ककिं क्षिपेत् ॥
इसके अतिरिक्त इनके सेवनसे धातुगत समस्त स्वर्णताम्रकपूरश्च प्रत्येकं कर्षपादिकम् । शक्राशनं वरी चैव श्वेतसर्जलवङ्गकम् ॥
ज्वर; वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज कोकिलाक्षं विदारी च मूशली शुकशिम्बिकम्।
आदि अनेक प्रकारके ज्वर अवश्य नष्ट हो जाते जातीफलं तथा कोषं बला नागबला तथा ॥
| हैं। ये गोलियां खांसी श्वास और क्षय को भी माषद्वयमितं मागं तालमूल्या रसेन च ।
| नष्ट करती हैं तथा बल और पुष्टि की वृद्धि करती पिष्ट्वा च वटिका कार्या चतुर्गुमाप्रमाणतः ॥
| हैं । इनके सेवनसे मैथुन शक्ति इतनी बढ़ जाती मधुना भक्षयेत्मातर्विषमज्वरशान्तये ।
| है कि नित्य प्रति स्त्री-समागम करने पर भी बल, धातुस्थांश्च ज्वरान् सर्वान् हन्यादेव न संशयः।।
वीर्यकी हानि नहीं होती । ये कामला, पाण्डु रोग वातिकं पैत्तिकञ्चैवं श्लैष्मिकं सान्निपातिकम् ।
और राजयक्ष्मामें भी गुणकारी तथा राजाओंको ज्वरं नानाविधं हन्ति कासं श्वासं क्षयन्तथा ॥
सेवन कराने योग्य हैं। बलपुष्टिकरं नित्यं कामिनी रमयेत्सदा।। (५५६७) महाराजवटी ? (२) न च शुक्रक्षयं याति न वलं हासतां व्रजेत् ॥ | (यो. र. । वाजीकरणा.; वृ. यो. त. । त. १४७) ऊर्ध्वगं श्लेष्मजं हन्ति सन्निपातं सुदारुणम् । बीजं ब्रह्मतरोविधाय बहुधा खण्डं त्रियामोषित कामलां पाण्डुरोगश्च प्रमेहं रक्तपित्तकम् ॥ छागे दुग्धवरेऽथ शुष्कमथ तद्गन्धेन तिथ्यंशिना।। महाराजवटी ख्याता राजयोग्या च सर्वदा ॥ युक्तं काचघटीयुतं हुतभुजो योगेन च त्वान्ततः।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और अभ्रक भस्म सत्त्वं तस्य निगृह्य काचघटिते भाण्डे सुखं १६-१६ माशे; विधारा बीज, बंग भस्म और
स्थापयेत् ।।
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