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लेपप्रकरणम्]
चतुर्थों भागः
पश्चात् आसवको निकाल कर छानकर कर्पूरवासित | विकार नष्ट होते तथा अग्नि दीप्त होती है । पात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खें ।।
मात्रा-५ तोले । समय--प्रातःकाल. इसके सेवनसे वात पित्तज रोग और रक्त- । (व्यवहारिक मात्रा-२ तोले । )
इति यकाराथासवप्रकरणम्
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अथ यकारादिलेपप्रकरणम् (५८०६) यवपिष्टलेपः | जौ और गेहूंका चूर्ण तथा जवाखारका लेप
(वृ. नि. र. । अजीर्णा. ) लगानेसे ब्रण ( व्रण शोथ ) फट जाता है । यवपिष्टयवक्षारलेपस्तक्रेण संयुतः।
हल्दीकी राख और चूनेको एकत्र मिला कर उष्णीकृतो हरेत्सद्यो जठराति सुदुर्जयाम् ॥ लेप करनेसे भी ब्रण (बण शोथ) फट जाता है। .
जौ के चूर्ण और जवाखारको तक्रमें मिला- (५८०९) यवादिलेपः (२) कर गर्म करके लेप करनेसे दुस्तर उदर-शूल भी
(यो. र.। विद्रधि.; वृ. मा. । विद्रधि. ) तुरन्त नष्ट हो जाता है।
| यधगोधूममुद्गश्च सिद्धपिष्टैः प्रलेपयेत् । (५८०७) यवभस्मादिलेपः
| विलीयते क्षणेनैवमपक्वश्चैव विद्रधिः ॥ ( यो. र. । अग्नि दग्ध., धन्व. । व्रण.; शा. सं।
__ जौ, गेहूं और मूंगको पका कर पीस कर लेप खं. ३ अ. ११.)
करनेसे अपक्क विद्रधि अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो दग्धयवभस्मचूर्ण तिलतैलाक्तं प्रलेपनादचिरात् । जाती है। हरति शिखिदाहदग्धं भूयोभ्यङ्गाणं चाऽऽशु॥
(५८१०) यवादिलेपः (३) जौको जला कर भस्म करें और फिर उसे (वैद्यामृत । वृद्धय.) अत्यन्त बारीक करके तिलके तेल में मिला लें। यवतिलऋतुजन्मरण्डवीजैः सुखोष्णइसे लगानेसे अग्निदग्ध ब्रण शीघ्र ही नष्ट हो हरति कृत विलेपः काञ्जिकेन प्रपिष्टैः॥
___जौ, तिल, पुनर्नवाकी जड़ और अरण्डके (५८०८) यवादिलेपः (१) छिलके रहित बीज समान भाग लेकर सबको एकत्र (वृ. नि. र. । वणशोथ; यो. र. । व्रण.) मिला कर काजीमें पीस लें । यवगोधूमचूर्ण च क्षारं दारणं पृथक् । इसे मन्दोषण करके लेप करनेसे अण्ड वृद्धि हरिद्राभस्मचूर्णाभ्यां प्रलेपो दारणः परः॥ । नष्ट होती है।
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