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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि (५८११) यवादिलेपः (४) (५८१३) यष्टयादिलेपः (१) (व. से. । क्षुद्ररो.)
( व. से. । व्रण.) यवान्सर्जरसं लोध्रमुशीरं चन्दनं मधु । यष्टी तिलाः सुपिष्टा वा सघृताव्रणरोपणे । घृतं गुदृश्च गोमूत्रे पचेदादविलेपनम् ॥ धातकीचन्दनबलाः समङ्गामधुकोत्पलैः ॥ तदभ्यङ्गानिहन्त्याशु नीलिकां व्यङ्गदूषिकाम् । दाव:मेदातिलेलेपः ससर्पित्रणरोपणः ॥ मुखं करोति पद्माभं पादौ पद्मदलोपमौ ॥ मुलैठी और तिलके महीन चूर्णको घीमें मि____ जौ, राल, लोध, खस और लाल चन्दनका | लाकर लेप करनेसे बण भर जाते हैं। चूर्ण तथा शहद, घी और गुड़ समान भाग लेकर
धायके फूल, लाल चन्दन, खरैटी, मजीठ, सबको ( ४ गुने ) गोमूत्र में पकावें और जब कर- मुलैठी, नील कमल, दारुहल्दी, मेदा और तिल; छीको लगने लगे तो उतार कर सुरक्षित रखें।
सबके समान भाग चूर्ण लेकर सबको एकत्र मिला इसे मलनेसे नीलिका और व्यङ्ग (झाई) | कर घीमें मिला लें। आदि नष्ट हो कर मुख कमलके समान शोभाय
इसका लेप करनेसे ब्रण भर जाते हैं । मान हो जाता है।
(५८१४) यष्टयादिलेपः (२) ___इसे पैरोंमें लगानेसे (पैरोंकी बिवाई आदि नष्ट हो कर ) वे कमलदल सदृश कोमल हो
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१.) जाते हैं।
यष्टीमधु तथा कुष्ठं चन्दनं रक्तचन्दनम् । (५८१२) यवादिलेपः (५)
उशीरं कत्तृणं चैव रक्तधातुमृणालकम् ।।
क्षीरमण्डकसंयुक्तं यथालाभं भिषग्वर ! । (व. से. । व्रण.)
| लेपनं पित्तरक्तानां मेहदाहः प्रशाम्यति ॥ यवचूर्ण समधुकं सह तैलेन सर्पिपा।
मुलैठी, कूठ, सफेद और लाल चन्दन, खस, दद्यात्प्रलेपनं कोष्णं दाहशूलोपशान्तये ॥
| गन्धतृण, गेरु और कमलनाल समान भाग लेकर ___ जौ और मुलैठीका चूर्ण समान भाग लेकर सबको अत्यन्त बारीक पीस कर दूध या माण्डमें दोनोंको एकत्र करके तेल और घीमें मिला लें। मिला कर लेप करनेसे पित्तरक्तज प्रमेहकी दाह - इसे मन्दोण करके लेप करनेसे ब्रणकी दाह । शान्त होती है । और पीड़ा शान्त हो जाती है ।
यदि उपरोक्त समस्त ओषधियां प्राप्त न हो (नोट-तेल और धी बराबर बराबर ले कर सकें तो जितनी मिल जाएं उन्हींसे काम चलाना एकत्र मिला लेने चाहियें।)
चाहिए।
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