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पकरणम् 1
(५३८६) माहेश्वरो लेपः
( वैद्यामृत । विषय ४० )
गन्धं सुतं शिलालो मरिच -
मपि निशायुग्म सिन्दूरतुत्थाः । दो वाकुचीतज्जरणयुगमिदं निम्बु तोयाज्ययुक्तम् ॥ लौहे लौन म प्रहरमितमथो
हन्ति माहेश्वराख्यम् । द कण्डू च पामां हर इव पटली संस्मृतः पातकानाम् ॥
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चतुर्थी भागः
गन्धक, पारा, मनसिल, हरताल स्याह मिर्च, हल्दी, दारूहल्दी, सिन्दूर, नीलाथोथा, पंवाड़, बाबची, जीरा और स्याह जीरा समान भाग लेकर चूर्ण करके सबको लोहे के खरल में डालकर नीबू के रस और घीके साथ लोहेकी मूसलीसे १ पहर तक खरल करें ।
यह माहेश्वर नामक योग दाद, पामा और खाजको इस प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार परमेश्वरका स्मरण पाप-समूह को ।
(५३८७) मांस्यादिलेप: (१)
( शा. सं. । उ. खं. अ. ११; यो. र.; वृ. नि. र.; विसर्पा ; वृ. यो. त. । त. १२३ ) मांसी सर्जरसो लोध्रं मधुकं सहरेणुकम् । मूर्वा नीलोत्पलं पद्मं शिरीषकुसुमानि च ॥ एतैः प्रदेहः कथितो वह्निवीसर्पनाशनः ॥
जटामांसी, राल, लोध, मुलैठी, रेणुका, मूर्वा, नीलोत्पल, कमल और सिरसके फूल समान भाग
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लेकर सबको पीसकर ( सौ बार धोये हुवे घी में मिलाकर) लेप करनेसे अग्निविसर्प नष्ट होता है । (५३८८) मांस्यादिलेप: (२) ( यो त । त. ७३ )
मांसी कुष्ठं तिलाः कृष्णाः सारिवामूलमुत्पलम् सक्षौद्र क्षीरपिष्टानि केशसंवर्धनं परम् ॥
जटामांसी, कूठ, काले तिल, सारिवाकी जड़ और नीलोत्पल समान भाग लेकर सबको दूधमें पीसकर शहद में मिलाकर लेप करनेसे केशवृद्धि होती है।
(५३८९) मांस्यादिलेप: (३) ( व. से. । विसर्प. ) मांसी सर्जरसं लोध्रं मधुकं सह रेणुभिः । हरेणवो मसूराच मुद्राश्चैव सशालयः ।। पृथक् लेपा विसर्पन्नाः सर्वे वा सर्पिषा सह ॥
जटामांसी, राल, लोध, मुलैठी, रेणुका, पित्तपापड़ा, मसूर, मूंग और शाली चाबल सब समान भाग मिश्रित अथवा पृथक् पृथक् ( चाहे जो ) लेकर पीसकर घीमें मिलाकर लेप करनेसे विसर्प होता है।
(५३९०) मांस्यादिलेप: (४) ( रा. मो. । शिरो.; यो त । त. ७३ ) मांसीवलाकुवलया मलकैः सकुष्ठैः
पुंसः प्रलिप्तशिरसो न पतन्ति केशाः । स्निग्धायताश्च कुटिलाकृत्तयो भवन्ति ते प्रत्युतास्य तरुणालिकुलप्रकाशाः ॥ जटामांसी, खरैटीकी जड़, कमल, आमला और कूठ समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें । १. " बकुलजा" इति पाठान्तरम् ।
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