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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि जो राजावर्त भारी और चिकना होता है वह लोह पात्रमें पकायें । जब वह गाढ़ा हो जाय तो श्रेष्ठ और अन्य प्रकारका मध्यम होता है। उसमें सुहागा आर पंचगव्य ( गाय का दूध, दही,
घी, गोमूत्र, गोबर ) मिला कर गोलियां बनावें राजावर्त प्रमेह, क्षय, अर्श, पाण्डु, कफ और और उन्हें सुखाकर मूषामें रख कर खरके अंगारां पवनको नष्ट करता है तथा दीपन, पाचन, वृष्य पर ध्मावं । इससे राजावर्तका सुन्दर शोभनीय और रसायन होता है।
सत्व निकल आता है।
इसी विधिसे गेरुका सत्व भी निकल आता नीबूके रस और गोमूत्रमें जवाखार मिला | है; जो पीला और लाल होता है। कर उसमें स्वेदित करनेसे राजावर्त शुद्ध हो । जाता है।
(६१४२) राजावतरसः (१) इसी प्रकार सिरसके फूलेके रस और अदरकके
( र. र. स. । उ. खं. अ. १४; र. चं. ; र. रा. रसमें भी राजावर्त शुद्ध हो जाता है।
सु. । मदात्यय.)
राजाव? रसः शुल्वं मासिकं घृतपाचितम् । राजावर्त में समान भाग शुद्ध गन्धक मिला | मध्वाज्यशर्करायुक्तं हन्ति सन्मिदात्ययान् ॥ कर दोनांको बिजौ रे नीबूके रस में घोट कर गज- राजावर्तकी भस्म, पारद भस्म (या रस सि. पुटकी अग्नि देनेसे सात पुटमें राजावर्तकी भस्म न्दूर ), ताम्र भस्म और स्वर्णमाक्षिक भस्म समान हो जाती है।
भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके थोड़े घीमें
मिला कर ज़रा देर मन्दाग्नि पर पकावें। (६१४१) राजावर्तसत्वपातनम् इसे शहद, घी और खांडमें मिला कर सेवन
(र. र. स. । पू. ख. अ. ३.) करनेसे समस्त प्रकारके मदात्यय रोग नष्ट होते हैं। राजावर्तस्य चूर्ण तु कुनटीघृतमिश्रितम् । (६१४३) राजावतरसः (२) विपचेदायसे पात्रे महिषीक्षीरसंयुतम् ॥
(र. का. धे. ; र. रा. सु. । ग्रहण्या. ) सौभाग्यपश्चगव्येन पिण्डीबद्धं तु कारयेत् । ध्मापितं खदिरागारैः सत्वं मुश्चति शोभनम् ॥
। मृतसूतं मृतं स्वर्ण यष्टीक राजवर्तकम् । अनेन क्रमयोगेन गैरिकं विमलं भवेत् ।
तुल्यांशं मईयेदाज्यैः क्षणं मृद्वग्निना पचेत् ॥
सितामध्वाज्यसंयुक्तं निष्काधं चैव लेहयेत् । क्रमात्पीतं च रक्तं च सत्वं पतति शोभनम् ॥
राजावतों रसो नाम ग्रहणीरोगनाशकः ॥ राजावर्तके चूर्णमें मनसिल मिला कर दोनोंको घीके साथ खरल करें और फिर उसे भैसके दूधमें । १ शुल्वमिति पाठान्तरम् ।
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