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अवलेहप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
श्वास, कास, अरुचि, और वलिपलितका नाश तथा जवं हयानां बलमुत्तमं च बल वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है ।
स्वरं मयूरस्य हुताशदीप्तिम् । ( साधारणतः मधुको गरम करना निषिद्ध है स्त्रीवल्लभत्वं विविधप्रभावं परन्तु इस प्रयोगमें अन्य द्रव्योंके साथ उसका
नोरोगतां द्वित्रिशतायुषं च ॥ पाक करना लिखा है।)
न चानपाने परिहार्यमस्ति वृहद्गुडपिप्पली
न चाऽऽतपे नाध्वनि मैथुने च । ( रसे. चि. म । अ. ९ ; र. रा. सु. ; रसे.
प्रयोगकाले सकलामयानां ___ सा. सं.। प्लीहा.)
राजाधिराजश्च रसायनानाम् ॥ प्र.सं. १३०७ “गुड पिप्पली मोदकः"
उत्तम पके हुवे शुद्ध भिलावे ४ सेर ले कर देखिये।
उनके दो दो टुकड़े कर लें और फिर सबको ३२ वृहद्गोक्षुराद्यवलेहः
सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह ( वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छ्रा .) जाय तो छान कर उसमें ३२ सेर दूध और २ रस प्रकरण में देखिये।
सेर घी मिला कर पुनः पकावें । जब गाढ़ा हो
| जाय तो १ सेर मिश्री मिला कर सबको अच्छी (६७२०) वृहद्भल्लातकलेहः
तरह आलोडित करके चिकने पात्रमें भर कर सुर( यो. र. ; वृ. यो. त. । त. ७०) ।
क्षित रक्खें, और सात दिन पश्चात् काममें लावें । सुपक्वभल्लातकफलानि सम्यग्
इसके सेवनसे समस्त गुद रोग नष्ट होते द्विधा विधायाऽऽढकसम्मितानि ।
और बाल खूब काले घने तथा धुंबराले हो जाते विपाच्य तोयेन चतुर्गुणेन
हैं । दृष्टि अत्यन्त तीव्र हो जाती है, तथा शरीरकी चतुर्थशेषे व्यपनीय तानि ॥
कांति चन्द्रमाके समान, गति घोडेके समान, स्वर पुनः पचेत्क्षीरचतुर्गुणेन
मयूरके समान, और तेज अग्निके समान हो घृतांशयुक्तेन घनं यथा स्यात् ।
जाता है। सितोपला पोडपभिः पलैश्च विमर्घ संस्थाप्य दिनानि सप्त ॥
इसके सेवनसे रोग रहित २-३ सौ वर्षकी ततः प्रयोज्याग्निवलेन मात्रां
आयु प्राप्त हो सकती है। जयेद्विकारानखिलान्गुदोत्थान् । इसके सेवन कालमें अन्न पान, धूप, मार्गकचान्सुनीलान्धनकुश्चिताग्रान- गमन और मैथुनादिके परहेज़की आवश्यकता
सुपर्णदृष्टिं च शशाङ्ककान्तिम् ॥ । नहीं है।
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