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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६७२१) व्याघीजीरकावलेहः ६। सेर अधकुटी कटेली और कपड़ेमें बंधी (वृ. नि. र. । श्वासा.)
हुई १०० हर्रोको ८ गुने पानीमें पकावें और व्याघ्रीजीरकपात्रीणां चूर्ण मधुयुतं लिहेत् ।
चौथा भाग शेष रहने पर छान कर उसमें ३ सेर ऊर्बवातमहाश्वासतमकैर्मुच्यते क्षणात् ॥
१० तोले गुड़ और उपरोक्त हरें डाल कर पुनः
पकावें। जब गाढ़ा हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे ____ कटेली, जीरा और आमला समान भाग ले
उतार कर उसमें दालचीनी, इलायची, तेजपोत, नागकर चूर्ण बनावें और उसे शहदमें मिला कर चाटने
केसर, पीपल और काली मिर्च का चूर्ण ५-५ तोले योग्य बना लें ।
तथा जवाखार ७॥ माशे मिला दें और जब वह ठंडा ___इसके सेवनसे ऊर्ध्व वात, महा श्वास और |
हो जाय तो ६० तोले शहद मिला कर सुरक्षित तमक श्वास शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
रक्खें । व्याघीहरीतकी
इसके सेवनसे खांसीका नाश तथा स्वर, वर्ण,
और अग्निकी वृद्धि होती है। ( वृ. यो. त.। त. ७८; ग. नि. । लेहा. ५; |
(६७२३) व्याध्याद्यवलेहः - भै. र. ; यो. र. ; व. से. ; र. र. ; च.
( यो. र. ; वृ. नि. र. ; व. से. । बालरोगा. ; द.। कासा.)
भा. प्र. । म. खं. २ बालरो. ) प्र. सं. ४८६७ "भृगुहरीतको" देखिये ।
व्याघ्री कुसुमसञ्जातकेशरैरवलेहिका । (मात्रा-१ हर्र, और ६ माशे लेह । ) | मधुना चिरसाताञ्छिशोः कासाव्यपोहति ॥ (६७२२) व्याघ्रीहरातक्यवलेहः ।
शहदमें कटेलीके फूलकी केसर मिला कर
चटानेसे बालकोंकी पुरानी खांसी भी नष्ट हो (ग. नि. । लेहा. ५)
जाती है । व्याघ्रीशतं हरीतक्यो दत्त्वा च शतसम्मिताः। (६७२४) व्योषादिलेहः जले चतुर्गुणे पक्त्वा चतुर्भागावशेषिते ॥
(व. से. । कासा.) आलोड्यातुलां तस्मिन् गुडस्य त्वभयाश्च ताः| व्योषपुष्करमृद्वीकात्रिफलाशठिचित्रकैः । पक्षिप्यास्मिन् घनीभूते त्वगेलापत्रकेसरम् ।। । मधुतैलयुतो लेहः श्लेष्मकासनिबर्हणः ॥ मगधोषणसंयुक्तं पालिकं चार्धकार्षिकम् । सांठ, मिर्च, पीपल, पोखरमूल, मुनक्का, हर्र, यवक्षारं च सञ्चूर्ण्य तस्मिंस्तत्पक्षिपेत्पुनः॥ | बहेड़ा, आमला, कचूर और चीतामूल; इनका चूर्ण मधुनः पलषट्केन युक्तः कासामयापहः। | समान भाग ले कर शहद और तेलमें मिला कर स्वरवर्णावहः पुंसामग्नेर्दीप्तिकरः परम् ॥ । चाटनेसे कफज खांसी नष्ट हो जाती है ।
इति वकारायवलेहप्रकरणम्
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