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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
निसोत, चिरायता, पाठा, सुगन्धबाला, कुटकी, (५०८३) मूत्रसंग्रहणीयो दशको मुलैठी और पीपलामूल । सब चीजें समान भाग
महाकषायः लेकर काथ बनावें।
(च. सं. । सू. अ. ४) इसे “ मुस्तादिगण " अथवा " मुस्तादि
जम्ब्बाम्रप्लक्षवटकपीतनोदुम्बराश्वत्थअष्टादशाङ्ग काथ " कहते हैं।
भल्लातकाश्मन्तकसोमवल्का इति दशेमानि • यह पित्तप्रधान सन्निपात, मन्यास्तम्भ, उरः | मूत्रसंग्रहणीयानि भवन्ति । क्षत, उरोग्रह, पार्वग्रह और शिरोमहमें हितकर है। जामन, आम, पिलखन, वट (बड), अम्बाडा (५०८१) मूत्रविरजनीयो दशको गूलर, पीपल वृक्ष, भिलावा, अम्लोट और खैर । महाकषायः।
इनका कषाय मूत्रकी अधिकताको कम (च. सं. । सू. अ. ४)
करता है। पद्मोत्पलनलिनकुमुदसौगन्धिकपुण्डरीक
[५०८४] मूर्वादिकाथः शतपत्रमधुकप्रियङ्गधातकीपुष्पाणीतिदशेमानि
(च. सं. । चि. अ. २७ ऊरुस्तम्भ.) मूत्रविरजनीयानि भवन्ति ।
मूर्वामतिवियां कुष्ठं चित्रकं कटुरोहिणीम् । सफेद कमल, नोल कमल, लाल कमल, कुमुद
| पूर्ववद्वा पिबेत्तोये रात्रिस्थितमथापि वा ॥ (कमलभेद), सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, मुलैठी,
___मूर्या, अतीस, कूठ, चीता और कुटकी के फूलप्रियङ्गु और धायके फूल।
काथ अथवा शीतकषायमें शहद मिलाकर पीनेसे इनका कषाय पीनेसे मूत्र दोषरहित हो जाता है।
ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट होता है।
(५०८५) मूपिकर्णीमूलयोगः [५०८२] मूत्रविरेचनीयो दशको
(ग. नि. । वन्ध्या . ५) __महाकषायः
गर्भाभावकृतान् दोषानेका एव हि नाशयेत् । (च, सं. । सू. अ. ४) योनिमध्यस्थिता स्त्रीणां मूपिकर्णीशिफा वृक्षादनीश्वदंष्ट्रावसुकवशिरपाषाणभेददर्भ
ध्रुवम् ॥ कुशकाशगुन्द्रेत्कटमूलानीति दशेमानिमूत्रवि- मूषाकर्णी की जड़को योनिमें रखनेसे रेचनीयानि भवन्ति ।
वन्ध्यत्व ( बांझपना ) अवश्य नष्ट हो जाता है। बिदारीकन्द, गोखरु, वसुक (अगस्ती), हुल- (५०८६) मृणालादिकाथः (१) हुल, पखानभेद, दाभ, कुश, कांस, गुन्द्रपटेर और (ग. नि. । धरा.; रा. मा. । ज्वरा. २०) इत्कट । इनकी जड़ लेकर कषाय बनाकर प्रयुक्त मृणालधात्रीफलचन्दनैयः करनेसे मूत्र खुलकर होता है ।
__ मृतं गुडूचीघनपर्पटेश्च।
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