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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [रकारादि इस काथमें सांठ, मिर्च, पीपलका चूर्ण मिला | तदुग्रगन्धनाशाय रात्रौ तक्रे विनिक्षिपेत् । कर सेवन करनेसे सन्निपात ज्वर नष्ट होता है। अपनीय च तन्मध्याच्छिलायां पेषयेत्ततः ।। ___ यह काथ १३ प्रकारके सन्निपात, वमन, | तन्मध्ये पश्चमांशेन चूर्णमेषां विनिक्षिपेत् । स्वेद. प्रलाप. स्तमित्य ( शरीरका भीगे कपडेसे सौवर्चलं यवानी च भर्जितं हिज सैन्धवम् ॥ लिपटा हुवा सा प्रतीत होना ), शरीरका ठण्डा | कटुत्रिकं जीरकं च समभागानि चूर्णयेत् । हो जाना, मोह, तन्द्रा, तृषा, श्वास, कास, दाह, एकीकृत्य ततः सर्वकल्कं कर्षप्रमाणतः ।। अग्निमांद्य, हृदयशूल, पार्श्वशुल, विष्टम्भ, जिहा- खादेदग्निबलापेक्षी ऋतुदोषाधपेक्षया । स्फुटनम् और कर्णशूलको शीघ्र ही नष्ट कर अनुपानं ततः कुर्यादेरण्डभृतमन्वहम् ॥ देता है । सर्वाङ्गेकाङ्गगजं वातमदितं चापतन्त्रकम् । सन्निपात ज्वरके लिये इससे श्रेष्ठ अन्य औ- | अपस्मारमथोन्मादमूरुस्तम्भं च गृध्रसीम् ॥ षध नहीं है। उर:पृष्ठकटीपार्श्वकुक्षिशूलान् कृमीन्जयेत् । (५८५४) रम्भाकन्दयोगः अजीर्णमातपं रोषमतिनीरं पयोगुडम् ।। ( वृ. नि. र. । छदि कर्म.) रसोनमश्न-पुरुषस्त्यजेदेतनिरन्तरम् ॥ रम्भाकन्दरसो वापि मधुना छर्दिनाशकृत् ॥ सुपक्क ल्हसनको छीलकर उसके भीतरका ___ केलेकी जड़के रसमें शहद मिला कर पीनेसे तन्तु और अङ्कुर निकाल दें और फिर उसकी तीब्र गन्ध दूर करनेके लिये उसे रातको तक्रमें छदि नष्ट होती है। डाल दें तथा दूसरे दिन प्रातःकाल पीस लें । अब (५८५५) रम्भादियोगः इसमें इसका पांचवां भाग निम्न लिखित चूर्ण (व. से. । श्वास.) मिला कर सुरक्षित रक्खें । रम्भाकुन्दशिरीषाणां कुसुमं पिप्पलीयुतम् । चूर्ण-सञ्चल (काला नमक ), अजवायन, पिष्ट्वा तण्डुलतोयेन पीत्वा श्वासमपोहति ॥ | भुनी हुई हींग, सेंधा नमक, सांठ, मिर्च, पीपल केलेका फूल, कुन्दके फूल, सिरसके फूल | और जीरा । सब चीजें समान भाग लेकर बारीक और पीपल समान भाग लेकर सबको चावलोंके पानीमें पीस कर पीनेसे श्वास नष्ट होता है। इस कल्कमें से ११ तोला अथवा ऋतुदोष (५८५६) रसोनकल्कः इत्यादिके अनुसार न्यूनाधिक मात्रानुसार खा कर ( शा. सं. । खं. २ अ. ५) ऊपरसे अरण्ड मूलका काथ पीना चाहिये । पक्ककन्दरसोनस्य गुलिका निस्तुषीकृता। इसके सेवनसे सर्वाङ्ग वात, एकाङ्गवात, पाटयित्वा च मध्यस्थं दूरीकुर्यात्तदङ्करम् ॥ | अर्दित. अपतन्त्रक, अपस्मार, उन्माद, उरुस्तम्भ, For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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