________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
चतुर्थी भागः
पायप्रकरणम् ]
गृध्रसी, उरः शूल, पृष्ठ शूल; कटी और पार्श्व शूल तथा कृमि रोग नष्ट होता है ।
अपथ्य --- ल्हसन के सेवन कालमें अजीर्ण न होने देना चाहिये तथा धूप, क्रोध, अत्यधिक जलपान, दूध और गुड़से परहेज़ करना चाहिये । (५८५७) रसोनयोग: ( १ ) ( वृ. मा. । शूला. ) रसोनं मद्यसम्मिश्रं पिबेत्मातः प्रकांक्षितः । वाश्लेष्मभवं शुलं निहन्तुं वह्निदीपनम् ॥
प्रातः काल भूखके समय ल्हसनको पीस कर मयमें मिला कर सेवन करनेसे वातकफज शूल नष्ट होता और अग्नि दीप्त होती है ।
(५८५८) रसोनयोगः (२) (ग. नि. । ज्वरा. ) प्रातः प्रातः ससर्पिष्कं रसोनमुपयोजयेत् । प्रातः प्रातः ल्हसनको पीस कर घीमें मिला कर सेवन करने से ज्वर नष्ट होता है ।
( यह प्रयोग मलेरिया में अधिक उपयोगी है | )
(५८५९) रसोनरसः स्नुहीरसश्च
( रा. मा. । कर्णरोगा. ) आवेष्ट सूर्यतरुपत्रचयेन वह्नावातापितात्स्रवति यत्सलिलं रसोनात् । यद्वास्नुहीशकलतो गलितं तदाशु
कर्णव्यथां हरति पूरणतः प्रभाते ॥
लहसन पर आक के पत्ते लपेट कर ( उस
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३२३
पर एक अंगुल मोटा मिट्टीका लेप करके ) अग्निमें वेदित करें और फिर उसका रस निकाल लें।
यह रस कान में डालनेसे कर्ण - पीड़ा तुरन्त शान्त हो जाती है ।
इस विधि से स्नुही ( सेंड - थोहर) के डण्डेका रस निकाल कर कान में डाला जाय तो भी पीड़ा शान्त हो जाती है ।
(५८६०) रसोनसप्तकम्
(बृ. यो. त. । त. ९०; व. से. । वातव्या . यो त । त. ४०)
पलमर्धपलं वाऽपि रसोनस्य सुकुट्टितम् । हिङ्गुजीरक सिन्धूत्यसौवर्चल कटुत्रिकैः ॥ चूर्णितैर्माको मानेर चूर्ण्य विलोडितम् । यथानि भक्षितं प्रातः रुबुकाथानुपानतः ॥ दिने दिने प्रयोक्त मासमेकं निरन्तरम् । वातामयं निहन्त्येवमर्दितं चापतन्त्रकम् ॥ एकाङ्गरोगिणां रोगं तथा सर्वाङ्गरोगिणाम् । उरुस्तम्भं गृध्रसीं च शूलं द्वन्द्वं कृमीनपि ॥ कटिपृष्ठामयं हन्याज्जाठरं च समीरणम् ॥
हींग (घीमें भुनी हुई), जीरा, सेंधा नमक, काला नमक (सञ्चल), सोंठ, काली मिर्च और पीपल; इन सबका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला लें ।
अब ५ तोळे या २|| तोले ल्हसनको छील कर अच्छी तरह कूट कर उसमें उपरोक्त चूर्ण १। माशा मिला कर दोनों को एक जीव कर लें ।
इसे अग्नि बलोचित मात्रानुसार प्रातः काल अरण्ड मूलके काथके साथ सेवन करने से १ मासमें
For Private And Personal Use Only