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भारत - भैषज्य रत्नाकर:
[ मकारादि
और उन्माद में धतूरेके ५ बीजोंके चूर्ण और संभालुके हरे (ताज़े) डण्डे से चलाते रहें । जब दो मिश्री के साथ देना चाहिये ।
भाग गन्धक जल जाय और पारद तथा सीसेकी भस्म हो जाय तो अग्नि देनी बन्द कर दें और कढ़ाईको चूल्हे से नीचे उतार लें तथा उसमें १ भाग शंखनाभिकी भस्म मिलाकर घोटें फिर १-१ भाग शुद्ध हिंगुल और पारद तथा ल्हसनका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह खरल करें और सूक्ष्म चूर्ण हो जाने पर कपड़े से छान कर सुरक्षित रक्खें ।
यह रस नवीन ज्वर, सन्निपात और कफ रोगोंमें उत्तम है ।
(५६४३) मृतसञ्जीवनरसः (१) (र. रा. सु. । सन्निपाता. ) नागं मुद्रावितं कृत्वा शुद्धं सूतं समं क्षिपेत् । सूत । द्विगुणगन्धं च चूर्णीकृत्य शनैः शनैः ॥ निक्षिप्य चालयेद्दण्डैः सार्द्रनिर्गुण्डिसम्भवैः । नागं सूतं मृतं ज्ञात्वा हिमज्वालानिवर्तितम् ॥ चुल्ह्यादुत्तार्य यत्नेन क्षारं धवलनाभिजम् । चूर्णितं सूततुल्यं च निक्षिपेन्मर्दयेत्तथा ॥ दरदं पारदं तुल्यं योजयेत्सम्प्रदायवित् । यवनेष्टभत्रं चूर्णं तत्तुल्यं योज्य यत्नतः ॥ विमर्ध वस्त्रपूतं च कृत्वा रक्षेत् सुभाजने कंवा द्विगु वा आर्द्रकस्य रसेन च ॥ जिहके सन्निपाते च प्रकुर्यात्प्रतिसारणम् । प्रकृतिं चानयेज्जिह्वास्तम्भं चापि हनुग्रहम् ॥ तथा च पिच्छलास्यं च मन्यास्तम्भशिरोग्रहम् । अर्दितं च जयेदाशु श्रीमद्गोरक्षशासनात् ॥ गुआमात्रं च दातव्यं बहुदोषे घृते सति । शुष्कां विचेष्टितां जिह्वां शुकजिह्वोपमां तथा ॥ प्रकृतिं चानयेत्क्षिमं नात्र कार्य्या विचारणा । मृतसञ्जीवनो ह्येष सम्प्रदायक्रमागतः ॥ नागादिद्रावणार्थेषु लोहपात्रं प्रकल्पयेत् ॥
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१ भाग शुद्ध सीसेको लोहेकी कढ़ाई में पिघला कर उसमें १ भाग शुद्ध पारद डालें और फिर थोड़ा थोड़ा शुद्ध गन्धकका चूर्ण डालकर
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इसमें से १-२ रत्ती रस अद्रकके रस में मिलाकर कि सन्निपातमें रोगीकी जिह्वा पर मलने से जिह्वा - स्तम्भ, गलग्रह, पिच्छिलास्यता ( मुंहकी चिपचिपाहट ), मन्यास्तम्भ, शिरोग्रह और अर्दितका नाश हो कर जिह्वा प्रकृतिस्थ हो जाती है ।
यदि दोषोंकी प्रबलता हो तो इसमें से १ रत्ती रस खिलाना भी चाहिये । इसके खिलाने से जिह्वाकी शुष्कता और जड़ता दूर हो जाती है तथा उसका रंग भी ठीक हो जाता है ।
(५६४४) मृतसञ्जीवनरसः (२)
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( यो. र. ; रसें. सा. स. । ज्वरातिसार ; वृ. यो. त. । त. ६४ ; र. र. ; . र. । ज्वरा. ; रसें. चि. म. । अ. ९; २. का. धे. । अति. ) reat समग्र सुतपादं विषं क्षिपेत् । सर्व्वतुल्यं मृतञ्चाभ्रं मद्यं धूस्तूर जैद्रवैः ॥ सर्पाक्ष्याच मं कषायेणाथ भावयेत् । धातक्यतिविषा मुस्तं शुण्ठी जीरकबालकम् ॥ यमानी धान्यकं बिल्लं पाठा पथ्या कणान्वितम् कुटजस्य त्वचं बीजं कपित्थं बालदाडिमम् ॥
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