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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः बिजौ रे नीबूकी केसर, सेंधा नमक और | ( सेंधा नमक, कांच लवण-कचलोना–सामुद्र काली मिर्च के चूर्णको मुखमें रखनेसे वातकफज लवण, बिड लवण तथा संचल नमक) समान भाग मुखरोग, मुखशोष, मुखकी जडता और अरुचि | लेकर चूर्ण बनावें। नष्ट होती है।
इसे मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करनेसे बल, (५१२७) मातुलङ्गमूलादियोगः वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है। ( ग. नि. । वन्ध्या . ५)
(मात्रा-१॥ से ३ माशे तक । ) मातुलुङ्गशिफां नारी ऋत्वन्ते पयसा पिबेत् । | (५१३०) मानकमूलादियोगः नागकेसरपूरास्थिचूणे वा गर्भदं परम् ॥
(यो. र. । विद्रधिचि.) बिजौ रे नीबूकी जड़का या नागकेसर और शमयति मानकमूलं क्षौद्रयुतं तण्डुलाम्भसा बिजौरे के बीजोंका चूर्ण स्त्रीको मासिक धर्म
पीतम् । होनेके पश्चात् दूधके साथ पिलानेसे वह गर्भ अन्तभूतं विद्रधिमुद्धतमाश्वेव मनुजस्य । धारण कर लेती है।
___ मानकन्दके चूर्णको शहदमें मिलाकर चाव(५१२८) मातुलुङ्गादिचूर्णम् (१) । लोंके पानीके साथ पीनेसे कष्टसाध्य अन्तर्विद्रधि ( यो. र.; वृ. मा. । स्त्रीरोगा.: वृ. नि. र.। स्त्री.. भी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। ___व. से. । स्त्रीरो.)
( मात्रा-१ तोला ) मातुलुङ्गस्य मूलं तु मधुकैः संयुतं तथा ।
मानसोल्लासचूर्णम् घृतेन सहितं पीत्वा सुखं नारी प्रसूयते ॥ (रसप्रकरणमें देखिये ।) बिजौ रेकी जड़ और मुलैठी समान भाग लेकर
मार्कण्डेयचूर्णम् चूर्ण बनावें।
(भै. र. । ग्रहण्य.) इसे घृतके साथ पिलानेसे स्त्रीको सुखपूर्वक रस प्रकरणमें देखिये। प्रसव हो जाता है।
मार्कवादिचूर्णम् (५१२९) मातुलगादिचूर्णम् (२)
(वृ. नि. र. । क्षय.) (वा. भ.। चि. अ. १० ग्रहण्य.)
रस प्रकरणमें देखिये। मातुलुङ्गशठीरास्नाकटुत्रयहरीतकी।
(५१३१) मालतीयोगः स्वर्जिकायावशूकाख्यौ क्षारौ पञ्चपटूनि च ॥
(व. से. । स्त्रीरो.) सुखाम्बुपीतं तच्चूर्ण बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥ मृतायाः कुम्भमुदरं पीतं तक्रेण मालतीमूलम् ।
बिजौ रेकी जड़, कचूर, रास्ना, सोंठ, मिर्च, घृतमधुलीढा सहसा करोति धात्री शमं निशा पीपल, हर, सज्जीखार, जवाखार और पांचों नमक |
चैव ॥
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